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सूरज भी आ गया था आशिकी के दांव में..

कल घूमने गया था समंदर के गांव में,
हिचकोलियां खाती रही कश्ती बहाव में।
 
निकले उधर से जब वो समंदर ठहर गया,
तूफान खुद सवार थे उनकी नाव में।
 
सूरत को क्या बयां करूं वो हुस्न नूर था,
नजरें थीं आसमान पर इतना गुरूर था,
 
पायल कि वो झनकार सुन रहा हूं आज तक,
जादूगरी थी ऐसी कोई उसके पांव में।
 
थे होंठ सुर्ख और बदन मरमरी सा था,
था रूप कोई अप्सरा का या परी का था,
 
जुल्फों में घटाएं थीं चेहरे पे धूप थी,
सूरज भी आ गया था आशिकी के दांव में।।
  
-  मौलिक व अप्रकाशित   - अतुल कुमार

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Comment by atul kushwah on June 19, 2014 at 8:05pm

आदरणीय जितेन्द्र जी, रचना पर आपकी प्रतिक्रिया से मन प्रसन्न है। sadar-atul

Comment by MAHIMA SHREE on June 19, 2014 at 7:57pm

खुबसूरत ग़ज़ल कही है ... बहुत-२ बधाई

Comment by coontee mukerji on June 18, 2014 at 10:11pm

बहुत सुंदर गज़ल.दाद कूबूल करें

Comment by Meena Pathak on June 18, 2014 at 4:23pm

बहुत सुन्दर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 18, 2014 at 12:57pm

अतुल जी

अंदाज गजल का था पर यह आपकी कविता थी i भाव और अभिव्यक्ति दोनों अच्छे i  सुन्दर i

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on June 18, 2014 at 12:21pm

बहुत खुबसूरत, दिल को छू जाती रचना. बधाई लीजिये आदरणीय अतुल जी

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