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ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बदलियों से चाँदनी का झिलमिलाना शेष है।
घन तिमिर में दीपकों का बुदबुदाना शेष है॥
सावनों की खो चुकी झड़ियाँ कहीं मिल जाएँगी,
देवदारों की कतारों का सजाना शेष है।
फिर घृणा उन्मादिनी सी दौड़ती है प्राण में,
प्रीत के आखर अढ़ाई कसमसाना शेष है।
हलचलों में खो चली है रात की नि:शब्दता,
भोर की पहली किरण का खिलखिलाना शेष है।
रूढ़ियों के बाँध सारे तोड़ कर कविता बहे,
पीर की प्राचीर में यूँ छटपटाना शेष है।
फिर परिन्दों ने बदल दी आज उड़ने की अदा,
हाय! लेकिन तितलियों का तिलमिलाना शेष है।
बैरियों की घात से,आघात से अवगत हुए,
यार की मीठी छुरी से घर बचाना शेष है।
गाल गीले भी हुए,रतनार भी,गुलनार भी,
चोट खा अन्याय की बस तमतमाना शेष है।
फिर नए दीवार,दर,छज्जे उठाए जाएँगे,
इन पुराने गुम्बदों का चरमराना शेष है।
आह, कितना आस्था की आरती का शोर है,
देवता सा मौन हो कर मुस्कुराना शेष है।
अंतरालों में,सवालों में घुटी है जिंदगी,
पाखियों सा वादियों में गीत गाना शेष है।
सब अदाएँ,भंगिमाएँ हैं बनावट की 'रवी',
चूर मन की मस्तियों में लड़खड़ाना शेष है॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 12, 2013 at 9:57am

बहुत सुन्दर भाई रवि प्रकाश जी बेहतरीन ग़ज़ल है सभी अशआर अच्छे हैं दाद कुबूल करें,

कृपया ध्यान दे...

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