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गजल : कितनी भला कटुता लिखें

भर्त्सना के भाव भर, कितनी भला कटुता लिखें?

नर पिशाचों के लिए, हो काल वो रचना लिखें।  

 

नारियों का मान मर्दन, कर रहे जो का-पुरुष,

न्याय पृष्ठों पर उन्हें, ज़िंदा नहीं मुर्दा लिखें।

 

रौंदते मासूमियत, लक़दक़ मुखौटे ओढ़कर,

अक्स हर दीवार पर, कालिख पुता उनका लिखें।

 

पशु कहें, किन्नर कहें, या दुष्ट दानव घृष्टतम,

फर्क उनको क्या भला, जो नाम, जो ओहदा लिखें।

 

पापियों के बोझ से, फटती नहीं अब ये धरा

खोद कब्रें, कर दफन, कोरा कफन टुकड़ा लिखें।

 

हों बहिष्कृत परिजनों से, और धिक्कृत हर गली,

डूब जिसमें खुद मरें वो, शर्म का दरिया लिखें।

 

कब तलक घिसते रहेंगे, रक्त भरकर लेखनी,

हों न वर्धित वंश, उनके नाश को न्यौता लिखें।

 

मौलिक व अप्रकाशित

 

कल्पना रामानी

Views: 1965

Comment

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Comment by वीनस केसरी on April 25, 2013 at 11:47pm

सौरभ जी हिन्दी के कुछ तत्सम शब्दों के साथ साथ ग़ज़ल में उर्दू के तमाम शब्द है इसलिए इस ग़ज़ल को हिन्दी ग़ज़ल से परिभाषित करना कितना उचित है ?
हिन्दी ग़ज़ल के परिदृश्य में प्रश्न करते हुए मेरा आशय अनेक विद्वानों द्वारा पुस्तकों और शोध ग्रन्थों में परिभाषित मानक से है जो कि  तर्क के स्तर पर भी सहज सर्व स्वीकार्य हैं
हिन्दी ग़ज़ल से आपका आशय किसी और परिद्रश्य में हो तो मेरे प्रश्न को मेरी और से ही ख़ारिज समझें
सादर

ज़िंदा
मुर्दा
मासूमियत
लक़दक़
अक्स
ओहदा
कब्रें
दफन
कफन
दरिया

Comment by वीनस केसरी on April 25, 2013 at 11:35pm

जो भाव उमड़ कर बहे हैं उनको एक नदी का रूप दे कर आपने कमाल कर दिया

कल्पना रामानी जी,
एक मुकम्मल ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 25, 2013 at 11:25pm

आदरणीया, आपकी ग़ज़ल में प्रयुक्त शब्द ही वस्तुतः अपना कमाल दिखा रहे हैं. आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल हिन्दी ग़ज़ल की सुन्दर बानग़ी है.

काफ़िया निर्धारण हुई भूल यदि जल्दबाज़ी में हुई है तो इसके प्रति कृपया ध्यान रखा करें. अच्छीखासी कहन अन्यथा रास्ते पर चली जाती है.

भाई गणेशजी की कविता मर्द एक अत्यंत संवेदनशील और प्रखर रचना है. जिस ढंग से उनकी कविता अपना असर छोड़ती है यह उनके वैचारिक व शाब्दिक कौशल का ही कमाल है. आदरणीया, गणेशभाई की उस कविता ने आपको आंदोलित किया है तो यह उनकी कविता की आशातीत सफलता है.

सादर

Comment by कल्पना रामानी on April 25, 2013 at 11:09pm

आदरणीय सौरभ जी आपको रचना इतनी पसंद आई, मेहनत सफल हुई। कल आ॰गणेश जी की रचना 'मर्द' पढ़कर मन व्यथा से भर गया था, भूल नहीं पा रही थी, उसे ही आज भावों में बांधने की कोशिश की। भूल सुधार कर लूँगी। आपका हार्दिक धन्यवाद...

Comment by कल्पना रामानी on April 25, 2013 at 11:06pm

आदरणीय योगराज जी, यह जल्दबाज़ी  में हुई भूल है। जानते हुए भी...अच्छा हुआ आपने गौर किया मैं अभी सुधार कर देती हूँ। आपका हृदय से आभार।  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 25, 2013 at 10:51pm

आदरणीय कल्पनाजी, उफ़ उफ़ !

इस ग़ज़ल में जो आग है उसकी धमक सीधे लग रही है. हर शेर काबिलेतारीफ़. हर शेर कुछ आवश्यक कर गुजरने का आह्वान करता हुआ !  पाशविकता को मर्दानग़ी का नाम देना अविलम्ब बन्द हो. आपको इस ग़ज़ल प्रयास के लिए हृदय से बधाई.

काफ़िया के ऊपर आदरणीय योगराज भाईजी ने सही सुझाव दिया है, आदरणीया. यह ग़ज़ल का तकनीकी पहलू है. आप मतले के सानी में कविता की जगह रचना कर दें तो इस समस्या से निज़ात मिल जायेगी. या इससे बेहतर इसी वज़्न का शब्द लिया जा सकता है.

सादर


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on April 25, 2013 at 10:15pm

आदरणीय कल्पना रमानी जी - मत्ले में "कटुता" और "कविता" को बतौर काफिया इस्तेमाल करके आप "ता" को हरफ़-ए-रवी घोषित कर चुकी हैं, लिहाज़ा "मुर्दा", "ओहदा", "टुकड़ा" या "उनका" काफिया सही नही माना जाएगा. 

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