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मृगनयनी कैसी तू नारी ??

मृगनयनी कैसी तू नारी ??
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मृगनयनी कजरारे नैना मोरनी जैसी चाल
पुन्केशर से जुल्फ तुम्हारे तू पराग की खान
तितली सी इतराती फिरती सब को नाच नचाती
तू पतंग सी उड़े आसमाँ लहर लहर बल खाती
कभी पास में कभी दूर हो मन को है तरसाती
इसे जिताती उसे हराती जिन्हें 'काट' ना आती
कभी उलझ जाती हो ‘दो’ से महिमा तेरी न्यारी
पल छिन हंसती लहराती औंधे-मुंह गिर जाती
कटी पड़ी भी जंग कराती - दांव लगाती
'समरथ' के हाथों में पड़ के लुटती हंसती जाती
तो जीती तो भी जीती - हारे 'हार' है पाती
कभी सरल है कभी कठिन तू अजब पहेली 'भाती'
कोमल गात कभी किसलय सी छुई -मुई है लगती
कभी शेरनी कभी सर्पिणी कभी दामिनी लगती
गोरी कलाई हरी चूड़ियाँ इंद्र-धनुष सी दिखती
रौद्र रूप धारण करती तो बनी कालिका फिरती
ज्योति पुंज है तू लक्ष्मी है सब के दिल की जान है तू
कभी मेनका कभी अप्सरा ऋषि मुनि का अभिशाप है तू
तो वीणा है सुर-लहरी तू मन का रस ‘आलाप’ है तू
तू माया है बड़ी मोहिनी एक भंवर जंजाल है तू
तू नैया है कभी खिवैया पार करे पतवार है तू
तू उलझन है कर्कश लहरें प्रलय बड़ी तूफ़ान है तू
तू गुलाब है बेला जूही रात की रानी कली चमेली
नागफनी है काँटा है तू बेल है तू विष-कन्या सी
पावन है तू गीता है तू सीता सावित्री गंगा धारा
काम-सूत्र है तू मदांध है बड़ी स्वार्थी विष की धारा
मधुर चांदनी मधु-मास है तू वसंत है प्रेम की खान
कृष्ण पक्ष है बड़ी मंथरा बनी पूतना होती 'काल'
तू चरित्र है या कलंक है प्रेम विरह में 'भ्रमर' घूमते चक्कर खाते
अगणित अद्भुत रूप तुम्हारे जान बूझ भी 'पर' कटवाते
अमृत-कुण्ड नहा लेते कुछ मैली-सरिता -'सभी' डुबाते
कीट-पतंगों सा जल-जल भी मरते दम तक कुछ मंडराते
ये प्रेम बड़ी है अद्भुत माया जो पाया वो सभी लुटाया
नींद गंवाता चैन गंवाता सब कुछ हारे सब कुछ पाता
इस जीवन सी गजब पहेली संग संग विचरे बनी सहेली
आओ जी भर प्यार करें हम डूब के पा लें सारे मोती
बड़ी सुनहरी सपना है तू सीपी है तू सात जनम की साथी
चकाचौंध है तू मेला है पल छिन की बाराती
सुन्दर कानन कल्प वृक्ष तू जीवन दाई हरियाली
तू उचाट है वंजर है तू कभी उगा- खा जाती
प्रेम ग्रन्थ आओ पढ़ पढ़ के कुछ गुत्थी सुलझाएं
मरें मिटें दीवाने चाहे प्रेम 'अमर' हो जाए
-------------------------------------------------------------
सुरेन्द्र कुमार शुक्ल 'भ्रमर'५
१.३०-२.२० मध्याह्न
फतेहपुर - कुल्लू हिमाचल रास्ते में वाहन में
२८.०२.२०१२


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Comment by UMASHANKER MISHRA on July 5, 2012 at 10:35pm

नारी के विभिन्न रूप को काल्पनिक उपमाओं से आभूषित कर सुन्दर चित्रण

प्रेम ग्रन्थ आओ पढ़ पढ़ के कुछ गुत्थी सुलझाएं
मरें मिटें दीवाने चाहे प्रेम 'अमर' हो जाए.... बहुत सुन्दर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 5, 2012 at 1:29pm
सुरेन्द्र कुमार "भ्रमर"जी आपने नारी की जीतनी भी विशेषताए, उपमाए, 
नारी की गहने, उसकी चाह्चल चितवन सा.स्वाभाव का बखूबी नख शिख 
वर्णन त्रेता,द्वापर की नारी हो या इन्द्र की अप्सरा के माध्यम से किया है,
वह बेहद सुन्दर है | एक पतंग की तरह लहराती बलखाती कट जाती शब्दों 
का स्तेमाल किया है, लगता है मेरे राजस्थान के हो या रहे हो | बहुत बधाई 
और हार्दिक धन्यवाद सुन्दर रचना पढने को उपलब्ध करने के लिए  
Comment by Yogi Saraswat on July 5, 2012 at 11:55am

बड़ी सुनहरी सपना है तू सीपी है तू सात जनम की साथी
चकाचौंध है तू मेला है पल छिन की बाराती
सुन्दर कानन कल्प वृक्ष तू जीवन दाई हरियाली
तू उचाट है वंजर है तू कभी उगा- खा जाती
प्रेम ग्रन्थ आओ पढ़ पढ़ के कुछ गुत्थी सुलझाएं
मरें मिटें दीवाने चाहे प्रेम 'अमर' हो जाए

क्या बात है श्री भ्रमर साब ! बहुत सुन्दर ! और एक बात - आप सच में महान रचनाकार हो जो राह में रचना लिख देते हैं ! महान लोगों के साथ यही होता है , जब भी दिल में शब्द आये , शब्दों का संयोजन किया और रचना तैयार ! आप स्वर्ग के जैसी सुन्दर जगह कुल्लू में रहते हैं तो निश्चित ही आपके शब्द भी सुन्दर ही होंगे ! बहुत बहुत बधाई

Comment by Rekha Joshi on July 5, 2012 at 11:06am

सुरेन्द्र जी ,नारी के विभिन्न रूपों को दर्शाती रचना ,बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 5, 2012 at 10:25am

वाह सुरेन्द्र कुमार भ्रमर जी नारी के विभिन्न रूपों की व्याख्या कितने विस्तृत रूप से कितने सुन्दर शब्दों में की मजा आ गया पढ़ कर बधाई आपको इस सुन्दर रचना हेतु  

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