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कुछ खरी-खरी 

(१)
घर के बीच खिंच रही दीवार 
बुजुर्गों के दिलों में पड़ी दरार  
कैसा दर्दनाक मंजर है किसे देखूं |
(२)
तेरे इस गूंगे घर से तो 
खंडहर  ही बेहतर हैं 
वहां कम से कम पत्थर तो बाते करते हैं |
(३)
तुम लाये हो इक बवंडर छिपा के अपने सीने में 
एक बार तो ये सोचा होता 
ताश के पत्तों से बना है मेरा घर|
(४)
बड़ी हसरतों से जमा किये थे शबनम के मोती 
स्वर्ण रथ पर आया लुटेरा 
सब चुरा के ले गया |
(५)
मेरे अपने ही फूलों ने 
झुका दिया इस डाली को 
वर्ना मेरी गर्दन ने कभी झुकना नहीं सीखा |
(६)
खुद को जलाकर जग को देते हो उजाला 
फिर भी एक नजर तुझे कोई देखना नहीं चाहता  
कोई तुझसा बेचारा नहीं देखा | 
(७)
ऐ तितली जरा संभल के उड़ना 
घात में बैठे है कांटे फूलों की आड़ में 
चीर देंगे तेरे कोमल पर 

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Comment by rajesh kumari on April 27, 2012 at 3:37pm

अरुण कुमार पाण्डेय जी हार्दिक आभार रचना की सराहना हेतु 


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Comment by rajesh kumari on April 27, 2012 at 3:36pm

वंदना जी सच में अपनी जिंदगी की राह में कई बार कुछ एसे मकाम मिल जाते हैं जिनकी परछाई हमेश आपका पीछा करती है .बहुत बहुत हार्दिक आभार 

Comment by Er. Ambarish Srivastava on April 27, 2012 at 3:00pm

//ऐ तितली जरा संभल के उड़ना 

घात में बैठे है कांटे फूलों की आड़ में 
चीर देंगे तेरे कोमल पर

मेरे अपने ही फूलों ने 
झुका दिया इस डाली को 
वर्ना मेरी गर्दन ने कभी झुकना नहीं सीखा |//

क्या बात है राजेश कुमारी जी, खरी-खरी पंक्तियों ने निहायत ही खरी-खरी बातें कह डाली हैं ..... साधुवाद !

Comment by Abhinav Arun on April 27, 2012 at 1:37pm
ऐ तितली जरा संभल के उड़ना 
घात में बैठे है कांटे फूलों की आड़ में 
चीर देंगे तेरे कोमल पर 
वाह वाह \
सुन्दर सशक्त रचना और जैसे उनवान है खरी खरी कही है आपने आदरणीय राजेश कुमारी जी हार्दिक बधाई इस रचना के लिए !!

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