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ग़ज़ल - मुस्करा के वेबजह ना मेहरबानी कीजिये

खेलिए ज़ज़्बात से मत  खौफ़ तारी कीजिये 
मुस्करा के वेबजह ना  मेहरबानी  कीजिये 
.
छेडिये इक जंग ग़ुरबत को मिटाने के लिए 
घोषणा मत खोखली या मुँह जबानी कीजिये 
.
कौन है जो चांदनी का नूर फैलाता है अब
सोचिये कुछ सोचिये कुछ मगजमारी कीजिये 
.
आईए करिए मनौव्वर इस जहां को इल्म से  -
बात खुलकर हर किसी से प्यारी-प्यारी कीजिए
.
बैठे - बैठे प्यास का मसअला होगा नहीं हल-
बात तब है , पत्थरों में नहर ज़ारी कीजिये 
.
राम औ रहमान दोनो हैं अलग कहके प्रभात 
देश की आवाम को न पानी - पानी कीजिये 
.
रवीन्द्र प्रभात 

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 4, 2012 at 10:49am

bahut umda bhaav aur behtreen sandesh deti hui ghazal.

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 4, 2012 at 8:56am

तारीकियों में नूर लुटता है कौन आज|

कुछ फिक्रो जिक्र कीजे,मगजमारी कीजिये|.....यह शेर बहुत ही पसंद आया|सादर वंदे

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 3, 2012 at 10:33pm

वाह! आदरणीय रविन्द्र जी, सादर! बहुत खूब, दाद कुबूल करें.


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on April 3, 2012 at 10:32pm

आदरणीय रविन्द्र जी, आपकी ग़ज़ल के भाव बहुत अच्छे है जिसके लिए आपको सादर साधुवाद. लेकिन शेअर नंबर ३ से शेअर नंबर ५ तक काफिये का निर्वहन सही नहीं हुआ है. जैसा की भाई वीनस केसरी जी ने कहा है, शिल्प पर ध्यान देने की बहुत ज्यादा आवश्यकता है.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 3, 2012 at 9:59pm

adarniya prabhat ji sadar abhivadan, sundar bhav ki gajal. badhai.

Comment by वीनस केसरी on April 3, 2012 at 8:36pm

रवीन्द्र  जी सुन्दर भावाभिव्यक्ति है,
आपके पास गज़ब के भाव हैं जिनको आप मोहक ढंग से रचना में उतार देते हैं
बधाई

शिल्पगत कसाव से आपकी रचना और निखरेगी आशा करता हूँ आप शिल्प पर और ध्यान देंगे

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