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गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा

सार छंद 16,12 पे यति, अंत में गागा

अर्थ प्रेम का है इस जग में
आँसू और जुदाई
आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
कैसी रीत चलाई

सूर्य निकलता नित्य पूर्व से
पश्चिम में ढल जाता
कब से डूबा सूर्य हृदय का
अब भी नजर न आता

धीरे धीरे बढ़ता जाए
अंतस में अँधियारा
दिशाहीन पथहीन जगत में
भटक रहा बंजारा

अभी शेष है कितनी पीड़ा
बोलो कुछ पुरवाई
आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
कैसी रीत चलाई

ओ दक्षिण को जाते पंछी
उनसे इतना कहना
तुम बिन साँसें छीज रहीं यूँ
नींद बिना ज्यूँ रैना

अपलक देखूँ राह तुम्हारी
नैन हमारे हारे
कब आओगे बाट निहारूँ
निस दिन प्राण अधारे

आती जाती ऋतु से पूछूँ
देकर राम दुहाई
आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
कैसी रीत चलाई

(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 10, 2025 at 8:03am

अनुज बृजेश , प्रेम - बिछोह के दर्द  केंदित बढ़िया गीत रचना हुई है , हार्दिक बधाई 
आदरणीय रावि भाई जी सलाहों के मई भी सहमत हूँ , ख़ास तौर पर '' आह बुरा हो '' के प्रयोग से , द्खियेगा अगर आप भी सहमत हों तो | 

Comment by Ravi Shukla on June 9, 2025 at 12:28pm

आदरणीय बृजेश जी प्रेम में आँसू और जदाई के परिणाम पर सुंदर ताना बाना बुना है आपने । 

कहीं नजर नहीं आता   में मात्रा अधिक हो रही है जिससे  लय  भंग है । 

ऐेसे ही बिचारे शब्द को आपन ेअपने बोलचाल के  लहजे में  लिया है जब कि यह बेचारा है  

दक्षिण को जाते पंछी से क्या अर्थ है ये हम नहीं समझ पाये उसे स्पष्ट करियेगा 

गीत एक कोमल विधा है  इसमें कटु बातों शब्दो भावों का समावेश कुछ अप्रिय लगता है अब  आह बुरा को कृष्ण तुम्हारा ये प्रेम की उच्च्ता को तो नहीं दर्शायेगा  न, प्रेम उदात्त भावों का प्रणेता है। 

इन बातो पर गौर करियेगा । ये हमारा पाठकीय दृषटिकोण है आप इनसे असहमत भी हो सकते है क्योंकि लेखकीय स्वंतत्रता सर्वोपरि है । रचना प्रस्तुति के लिये बधाई । सादर 

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