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सवेरे सवेरे.....

आज आटा गूंधते समय
अचानक उठ आये
छोटी उंगली के दर्द ने
याद दिलाया है मुझे
सुबह गुस्से में जो कांच का
गिलास जमीन पर फेंका था तुमने
उसी काँच के गिलास को
उठाते वक्त चुभा था
काँच के गिलास का वह टुकड़ा,मेरी उँगली में
लाल खून भी अब तो 
झलकने लगा है उंगली में 
सोच रही हूँ
अब कैसे गूंधूंगी आटा
फिर बायें हाथ से ही
समेटने लगी हूँ
उस आधे गुंधे हुये आटे को
तुम्हें क्या मालूम
हर हाल मे ही
सहना है मुझे तुम्हारा गुस्सा......
आभा

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 अप्रकाशित एवं मौलिक 

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Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 14, 2016 at 11:53am
आदरणीया आभा सक्सेना जी गागर में सागर भर दिया है आपने । सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई । सादर ।
Comment by Abha saxena Doonwi on September 13, 2016 at 7:48pm

आदरणीय TEJ VEER SINGH जी  आपका  हार्दिक  अभिनन्दन  शुक्रिया ...

Comment by Abha saxena Doonwi on September 13, 2016 at 7:46pm

आदरणीय समर कबीर जी नमस्कार ,कोई बात नहीं ..आपने मेरा सन्देश देखा  मेरे लिए यही बहुत बड़ी  बात है ....आभार आपका  :)

Comment by TEJ VEER SINGH on September 13, 2016 at 1:25pm

हार्दिक बधाई आदरणीय आभा जी।एक स्त्री के दर्द से ओतप्रोत मार्मिक प्रस्तुति।

Comment by Samar kabeer on September 13, 2016 at 11:57am
मोहतरमा आभा सक्सेना जी आदाब,बढ़िया कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कल ओबीओ पर आपका सन्देश देख लिया था,लेकिन जवाब कैसे देना है ये समझ नहीं आ रहा था,क्षमा प्रार्थी हूँ,कृपया इसे अन्यथा न लें ।

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