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तलवार (लघुकथा)

जैसे ही कई वर्ष पुरानी तलवार को उस वीर ने म्यान से बाहर खींचा तैसे ही उस जंग लगी तलवार के सोये अरमान फिर से जाग उठेऔर उसने चाहा कि उसे फिर एक बार पहले सा सम्मान,प्रेम प्राप्त हो जो पहले उसे राजा के हाथ में आने के बाद मिलता था। उसे याद हो आये वो दिन जब युद्ध में सिपाहियों को पाट पाट कर वो अचानक ही अपने राजा की प्रधान प्रेयसी बन जाती थी। उसके मुख पर एक कुटिल मुस्कुराहट छाई व मन में एक आकांक्षा जागी वही युद्ध, वही सम्मान! काश ! वीर ने उसे बुझे मन से देखा व सान धरने वाले के पास ले गया। उसने तलवार उस व्यक्ति को दिखाई फिर इशारे से कुछ समझाया व उसे दे दी। तलवार खुश सान लगाने वाले पत्थर से उसकी बड़ी पुरानी पहचान थी। सान लगाने वाले ने तलवार तैयार कर के रख दी ।तलवार को तो पता भी नहीं चला कि इस बार उसपर धार चढवाने नहीं बल्कि उतरवाने रखा गया है। वह तो केवल खुश थी कि अब उसे फिर से गर्म लहू चखने को मिलेंगा ।पत्थर उसकी खुशी देख हँस पड़ा ।मगर तलवार घमन्ड किए जा रही थी। म्यान में रखी खुशी से फूले जा रही थी। किसी के आने की आहट हुई वही वीर आया व मन ही मन बड़बड़ाया ,"बस अब ठीक।" और वह उसे लेकर घोड़े पर सवार हो घर जाने लगा।तलवार की यह आवाज़ भी जानी पहचानी थी।उसे फिर से उम्हास हो रहा था मगर शीघ्र ही वे घर पहुँच गए।उसने वह तलवार म्यान से बाहर निकाली व ढाल में घोप दी व कुछ अनमने से होकर वह तलवार सेवक को दीवार पर लगाने के लिये सौंप दी।और उससे बोला," देखो ये हमारे दादा जी की तलवार है इससे उन्होंने बहुत से युद्ध जीते मगर हम आज इसकी धार उतरवाकर लाए हैं।
वे अपने आखिरी दिनों में बहुत रोया करते थे और कहा करते थे ये सब कुछ इस तलवार के कारण ही हुआ है और उनकी आकांक्षा थी कि उनकी इस तलवार को कोई हाथ ना लगाए।उन्होने सबको ताकीद की थी कि कोई भी युद्ध ना करे और किसी को भी किसी पर विजय प्राप्त करने के लिए इसका सहारा न लेना पड़े साथ ही उन्होंने कहा इस तलवार को बिन धार की बना दीवार पर लगा दिया जाए जिससे ये किसी को ना लीले।"
आज मैंने उनकी इच्छा पूरी की है। ये जालिम है,अपने पराये का भेद नहीं करती। मेरे पिता ने इससे ही अपने पिता का कत्ल किया था। अब इसकी यही गति है। जब तलवार को असलियत पता चली तो वह थर थर काँपने लगी अपने किये पर शर्मिंदा होने लगी व ढाल से बोली,"जाने मैं क्यों जन्मी ।" और वह सेवक के हाथों नीचे गिर गई और उसके दो टुकड़े हो गए।

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मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by Mamta on January 14, 2016 at 9:20am
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं। आपको लघुकथा पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ। धन्यवाद!
सादर ममता
Comment by Archana Tripathi on January 13, 2016 at 2:46pm
तलवार तो बेजान वस्तु हैं मगर हम है बुद्धिशील इंसान और वस्तु का उपयोग हम जिस भी तरह करे उसके लिए हम ही जिम्मेदार होंगे ।बढ़िया कथा ,आदरणीय ममता जी हार्दिक बधाई आपको ।
Comment by Mamta on January 12, 2016 at 6:49pm
आदरणीय गिरिराज जी धन्यवाद! आप ठीक कह रहे हैं उन्हें (हथियारो को) तो हमने ही बनाया है वो भी सुविधा के हेतु मगर इन्सान ने ज्यादातर शक्ति का दुरुपयोग ही किया है इतिहास गवाह है ।
सादर ममता

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 12, 2016 at 3:50pm

आदरणीया , अच्छी लगी आपकी लघुकथा , आपको दिली बधाइयाँ । पर सच तो ये है कि तलवार का कभी कोई दोष नही होता दोष हमेशा उसे थामने वाले की भावना का होता है । क्योंकि वही तो तय करती है तलवार का अच्छा या बुरा उपयोग । ये मेरा अपना विचार है ।

Comment by Mamta on January 12, 2016 at 1:42pm
आदरणीया नीता जी बिल्कुल सही कहा आपने तलवार ही क्या कोई भी हथियार कहाँ सोचने देता है बुद्धि हर लेता है और अंधा कर देता है पछतावा तो बाद में ही होता है मगर तब तक खेल खत्म हो चुका होता है ।
आपका बहुत बहुत आभार, मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी के लिए।
सादर ममता
Comment by Nita Kasar on January 11, 2016 at 1:05pm
ये तलवार भी बला की चीज़ है अपनी पर आ जाये तो निर्दोषों के सीने में नश्तरबन उतर जाये बधाई आद०ममता जी ।
Comment by Mamta on January 11, 2016 at 8:44am
आदरणीय समय कबीर जी हौसला अफज़ाई के लिए धन्यवाद।
सादर ममता
Comment by Samar kabeer on January 10, 2016 at 5:03pm
मोहतरमा ममता जी आदाब,इस भावपूर्ण लघुकथा के लिये दिल से बधाई स्वीकार करें |
Comment by Mamta on January 9, 2016 at 12:58pm
Maaf kijiye usmani ji .
Sadar Mamta
Comment by Mamta on January 9, 2016 at 8:03am
आदरणीय उस्मान जी बहुत -बहुत धन्यवाद!
सादर ममता

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