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मन की देवी कुछ पल ठहरो

2222 2222 2222 2222
(16 रुक्नी ग़ज़ल- बीच बीच में 2 मात्रा को 1-1 भी लिखा गया है)
=====================================
मन की देवी कुछ पल ठहरो, मैं तेरा शृंगार तो कर लूँ।
इन आँखों से झरते हैं जो, उन मोती के हार तो गढ़ लूँ।।

जिस मन्दिर को तोड़ चली हो, उससे बहते रक्तिम रस से।
तेरे इन गोरे हाथों पर, मेहदी बन कर आज बिखर लूँ।।

कुंडल कंगन बिंदिया बाली, ये तेरे होंठों की लाली।
दिल की भष्म से करके टीका, इनकी नज़र मैं आज तो हर लूँ।।

जाना है तो हंस कर जाना, किन्तु विदा तो करते जाना।
रस्ते में अंधियार बहुत है, नैनों में उजियार तो भर लूँ।।

आओ अब तैयार करो तुम, हाथों से शृंगार करो तुम।
कई दफ़ा खुद से संवरा हूँ, तुझसे अंतिम बार सँवर लूँ।।

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 1, 2015 at 9:51pm
आदरणीय मिथिलेश सर आपका सुझाव स्वीकार करनें लायक है।

सुझाव के लिए सादर आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 1, 2015 at 9:48pm

आदरणीय पंकज जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है। ग़ज़ल के लिये दाद हाज़िर है-

मन की देवी कुछ पल ठहरो, मैं तेरा शृंगार तो कर लूँ।
इन आँखों से झरते हैं जो, हर मोती को हार में धर लूँ।।................ मतला में काफिया निर्धारण गलत हो रहा था इसलिए . बाकी आपको जैसा उचित लगे.

जिस मन्दिर को तोड़ चली हो, उससे बहते रक्तिम रस से।
तेरे इन गोरे हाथों पर, मेहदी बन कर आज बिखर लूँ।।.............. बहुत सुन्दर 

कुंडल कंगन बिंदिया बाली, ये तेरे होंठों की लाली।
दिल की भस्म से करके टीका, इनकी नज़र मैं आज तो हर लूँ।।................. वाह वाह 

जाना है तो हंस कर जाना, किन्तु विदा तो करते जाना।
रस्ते में अंधियार बहुत है, नैनों में उजियार तो भर लूँ।।...........हासिल-ए-ग़ज़ल 

आओ अब तैयार करो तुम, हाथों से शृंगार करो तुम।
कई दफ़ा खुद से संवरा हूँ, तुमसे अंतिम बार सँवर लूँ।।............. शानदार 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 1, 2015 at 9:43pm
आदरणीय शिज़्ज़ु शकूर सर; सादर अभिवादन। मतले में कर लूँ के साथ गढ़ लूँ; हमकाफ़िया नहीं हैं लेकिन "ये शब्द 'गढ़' यहाँ म7झे बहुत अच्छा लग रहा था इसलिए लोभ वश लिखा दिया।"
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 1, 2015 at 9:40pm
आदरणीय रिज़वान भाई सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 1, 2015 at 9:39pm
आदरणीय राहिला जी सादर आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 1, 2015 at 7:32pm
आदरणीय पंकज जी बढ़िया रवाँ ग़ज़ल है। लेकिन मत्ले में थोड़ा चूक गये आप कर और गढ़ हमकाफ़िया नहीं हो सकते एक बार फिर से सोचियेगा, बाकी ग़ज़ल के लिये दाद हाज़िर है
Comment by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on November 1, 2015 at 6:10pm
आo पंकज जी बहुत ही खुबसूरत ग़ज़ल है माशाअल्लाह।।।
Comment by Rahila on November 1, 2015 at 2:51pm
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल आद.पंकज जी । पढ़ कर मन प्रसन्न हो उठा । बहुत बधाई आपको ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on November 1, 2015 at 12:17pm
आदरणीय कान्ता रॉय मैम ग़ज़ल की सराहना के लिये सादर आभार।
Comment by kanta roy on November 1, 2015 at 12:12pm

मन की देवी कुछ पल ठहरो, मैं तेरा शृंगार तो कर लूँ।
इन आँखों से झरते हैं जो, उन मोती के हार तो गढ़ लूँ।।।।।।वाह !!! कमाल की ग़ज़ल बनी है। पढ़ते ही मन हरा हो गया। बधाई आदरणीय पंकज जी आपको इस सुन्दरतम कृति के लिए।

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