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तुम गुलगुल गद्दा पर सोवौ, हमका खटिया नसीब नाहीं। 
तुम रत्नजड़ित कुर्सिप बैठौ, हमका मचिया नसीब नाहीं। 
तुम भारत मैया के सपूत, हम बने रहेन अवधूत सदा। 
तुमरी बातेन का करम सोंचि, हम कहेन हमें है इहै बदा। 
हर बातन मां तुम्हरी हम तौ, हां मां हां सदा मिलावा है। 
तुमका संसद पहुंचावैक हित, तौ मारपीट करवावा है। 
तबकी चुनाव मां बूथ कैंप्चरिंग, किहा रहै तौ अब छूटेन। 
तुम्हरे उई दुईसौ रुपया मां, जेलेम खालर चुनहीं ठोकेन। 
तुम निकरेव वादा कै खिलाफ, मुलु तुमका हम तौ माफ किहा। 
दुई साल काटि कै रिहा भयेन, अपनौ खेती बरबाद किहा। 
जब जेले से घरका आयेन, तब पता चला मेहरी भागी। 
आंगन मां ठाढ़े हाल सुना, तब जानि परा जरिगेल आगी।
मुलु इहौ मुकद्दर मानि क्यार, हम घूंट खून का पी डारेन। 
अपनी छोटी बिटिया खातिर, अपने मन का हम फिर मारेन।
मुलु जब भीषण अकाल आवा, हम बूंद, बूंद का तरसि गएन। 
पानी बरसा ना अन्न भवा, हम दाना-दाना कल्हरि गएन। 
तब्बौ तुम दिल्ली मां बैठे, ह्वीस्की औ बियर का चूसि रहे। 
जब मिलै गएन तुम्हरे घर मां, तुम उल्टै हमका कोसि रहे। 
हमरी बिटिया मरिगै भूखन, गोधन की जिभिया ऐठि गई। 
लाखन पशु मरिगे हैं प्यासन, हैं पेट पकरि सब बैठि गए। 
सोलह का नौजवान गबरू, है जानि परत सत्तर साला।
लरिका बिटियन की देंही मां, बिधिना कोंचिस जैसे भाला। 
हाला की बची खुची देंही, हय्या अकाल है हरि लीन्हेसि। 
हमरी गल्ती कै फल हमका, विधिना जिन्देन मां है दीन्हेसि। 
हमका जिन्दा राखी अकाल, तौ इंन्कलाब कै जाप करब।
घर-घर मां अलख जगाइब हम, खद्दर खिलाफ अभियान करब।
दुखियन कै दु:ख हरब हमहीं, बोलै का उन्है सिखाइब हम। 
संसद केरे गलियारन मां, तौ इंकलाब गोहराइब हम।
ई लोकतंत्र है प्रजातंत्र, है नहीं बपौती ई तुम्हरी। 
जनता के वोटन का लै कय, घर मां बैठेव जैसे मेहरी। 
संसद की देहरी लांघि क्यार, हम झोंटा तुम्हरा नोचि ल्याब।
तुम्हरी गद्दारी की कीमत हम, लातन घूसन ठोंकि द्याब। 
बापू के पावन खादी कै, बरबादी तौ तुम कइ डार्यो। 
भारत की परेशान जनता का, जिन्दे मइहन तुम मार्यो।
अब जब तक फांसी के फंदा पर, तुमका ना लटकइबै हम। 
तुमरे करमन की गति तक जब तक, तुमका ना पहुंचइबै हम।
भारत मय्या की कसम हमें, तब तक खाना पानी हराम।
अब इंकलाब की खातिर हम, जन-जन मा घूमिब सुबह शाम। 
अतुल अवस्थी *अतुल*
मो-9415060068

"मौलिक व अप्रकाशित" 

(मित्रो! लोकसभा चुनाव की घोषणा हो गई है। लोकतंत्र के महापर्व की चारो ओर खुशी है। लेकिन बीते लोकतंत्र के महापर्व की छाप कुछ लोगों के जीवन में ऐसी पड़ी कि वह जिंदगी भर नहीं भूल सकते। चुनाव में जिन्हे माई बाप मानकर मदद करते हुए संसद पहुंचाया, बूथ कैप्चरिंग में जेल की हवा खाई। सोंचा था कि गाढ़े मुसीबत में काम आएंगे उसे जनतंत्र के नायक बनने वाले पहचानने से भी इंकार करते हैं। फिर उसकी मनोदशा क्या होती है, समाज की इसी विसंगति पर अवधी में एक ताजी रचना प्रस्तुत है, कहीं त्रुटि हो तो क्षमा कीजिएगा) 

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 11, 2014 at 9:20pm

आदरनीय अतुल भाई , राजनीति की कड़वी सच्चाई को बहुत अच्छे से बयान किया है आपने , हार्दिक बधाइयाँ ॥

Comment by Meena Pathak on March 11, 2014 at 10:14am
Bahut sundar .. Badhai

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