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बुत शहर में बोलते इंसान भी तो हैं!//गज़ल//कल्पना रामानी

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ज़िन्दगी जीने के कुछ, सामान भी तो हैं!

बुत शहर में बोलते, इंसान भी तो हैं!

 

भीड़ से माना कि घर, सिकुड़े बने पिंजड़े,

साथ में फैले हुए, उद्यान भी तो हैं!

 

और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,

मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।

 

गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़

यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!

 

क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?

जानकर ये बन रहे, नादान भी तो हैं!

 

हल चलाते हाथ कोमल हो नहीं सकते,

श्रम से होते रास्ते, आसान भी तो हैं!

 

माँ-पिता क्यों दोष देते, पुत्र को ही आज?

मन में उनके कुछ दबे, अरमान भी तो हैं।

 

दोष देने से शहर को, क्या भला हासिल?

ये शहर जन के लिए, वरदान भी तो हैं!  

 

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामानी

 

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Comment

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Comment by कल्पना रामानी on December 6, 2013 at 6:39pm

आदरणीय वैद्यनाथ जी, हार्दिक धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on December 6, 2013 at 6:38pm

गीतिका जी, बहुत बहुत धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on December 6, 2013 at 6:38pm

वंदना जी, हार्दिक धन्यवाद आपका-सादर

Comment by Saarthi Baidyanath on December 5, 2013 at 1:12pm

बढ़िया ग़ज़ल पढ़ने को मिली ....वाह कल्पना मैडम !...मुबारक 

Comment by वेदिका on December 5, 2013 at 12:34pm

और अधिक के लोभ में, नाता घरों से तोड़,

मूढ़ गाँवों ने किए, प्रस्थान भी तो हैं।

 

गाँव ही आकर अकारण हैं मचाते भीड़

यूँ शहर में बढ़ गए व्यवधान भी तो हैं!

 

क्यों नहीं हक माँगते, शासन से आगे बढ़?

जानकर ये बन रहे, नादान भी तो हैं!

दमदार गज़ल का एक एक शेअर इंकलाबी भाषा मे बात कर रहा है| अपने पक्ष मे मजबूती से रखे गए तर्क विस्मित करते हैं| अभी तक कई गजले कवितायें गाँव के हश्र के लिए शहर को दोष देती नज़र आयीं| आपने इस गज़ल के माध्यम से सकारातमकता को पुष्ट किया है| एक बार पुनः आपको बधाई इतनी खूबसूरत गज़ल के लिए! 

Comment by Vindu Babu on December 5, 2013 at 8:50am

नकारात्मक और सकारात्मक दोनों पहलुओं  को प्रकाशित करती हुई उन्नत  गज़ल बहुत अच्छी लगी आदरणीया।

सादर बधाई स्वीकारें इस सफल रचना के लिए।

Comment by कल्पना रामानी on October 17, 2013 at 9:26am

आदरणीय सौरभ जी, बिलकुल यही भाव मन में कुलबुला रहे थे कि लोग शहरवासियों की  तुलना पत्थर, हृदय हीन, स्वार्थी आदि शब्दों से क्यों करते हैं। मैं ज़िंदगी के लंबे दौर से गुज़री हूँ, बचपन से ही छोटे-बड़े गावों, शहरों, से होते हुए  महानगर में आकर जीवन स्थिर हो गया है।  टाउनशिप और सोसाइटियों की जीवनशैली व्यस्त होने के बावजूद एकता और स्नेह सम्मान हर स्थान पर देखने को मिला। मैं यही कहना चाहती हूँ की शहरों को दोष देने और इनके नाम पर रोने धोने से अच्छा है, कि इनसे मन को जोड़कर देखा जाए। गाँवों को अपनी मेहनत से सुविधाओं के शिखर तक ले जाना चाहिए। अपने अधिकारों के प्रति सजग होना चाहिए। यह सब बिना प्रयत्न के तो हो नहीं सकता, यही कहने का प्रयास किया है। आपकी सार्थक टिप्पणी से काफी राहत मिली। बहुत बहुत धन्यवाद आपका

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 17, 2013 at 2:06am

खेद है, विलम्ब से इस प्रस्तुति पर आ पा रहा हूँ.

ग़ज़ल के कई शेर संतुष्ट करते हुए हैं, आदरणीया. शहर की महत्ता को समुचित शब्द मिले हैं. वर्ना आजकल एक परिपाटी सी बन गयी है शहरों पर अपनी खीझ उतारने की. ऐसा वे भी कर रहे हैं जिन्हों ने अपने ड्रॉईंग रूम के वाल-फ्रेम या वाल-हैंगिग के अलावे गाँव को कायदे से देखा तक नहीं है. खैर..

बहुत-बहुत बधाई इस ग़ज़ल के लिए

शहर और नगर में अंतर होता है. नगर से वह भाव अभिव्यक्त नहीं होता जो शहर से हो पाता है. 

सादर

Comment by कल्पना रामानी on October 13, 2013 at 10:19pm

आदरणीय केवलप्रसाद जी, आदरणीय अभिनव अरुण जी, आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी, गीतिका जी, वीनस जी, बृजेश जी, आदरणीय रामनाथजी, आप सबका हार्दिक धन्यवाद। आदरणीय रामनाथ जी, नगर लिख सकते हैं, लेकिन गाँव-शहर एक तरह से मुहावरा बन गया है। इसलिए वैसा आनंद नहीं आता। एक बार मन बनाने की बात है। उर्दू लिखने वाले अपने अपने उच्चारण के अनुसार लिखेंगे। हम जब शह्र बोलते ही नहीं तो लिखें भी क्यों? जो इस तरह लिखना चाहते हैं वे भी स्वतंत्र ही हैं। सादर

Comment by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 13, 2013 at 8:47pm

शहर की जगह नगर लिख देने से भी काम हो जायेगा .....नमन !!!.

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