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मुक्तक - (रवि प्रकाश)

वज़न-।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ ।ऽऽऽ

1. नहीं शिकवा नज़ारों से अगर नज़रें फिसल जाएँ,
भले ख़ामोश आहों में सुहाने पल निकल जाएँ।
तेरी मग़रूर चौखट पे नहीं मंज़ूर झुक जाना,
हमेशा का अकेलापन भले मुझ को निगल जाए॥

.
2. तुम्हारे रूप की गागर न जाने कब ढुलक जाए,
चटख रंगीनियों में भी पुरानापन झलक जाए।
मगर मेरी मुहब्बत तो सदानीरा घटाएँ है,
वहीं अंकुर निकलते हैं जहाँ पानी छलक जाए॥

.
3. किसी जुम्बिश में धड़कन के अभी अहसास बाक़ी है,
अपरिचित आहटों में भी तेरा आभास बाक़ी है।
न जाने कौन सी उम्मीद पे शम्मां भड़कती है,
मिलन अपना असम्भव है मगर विश्वास बाक़ी है॥

मौलिक व अप्रकाशित।

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Comment by Ravi Prakash on July 26, 2013 at 6:47am
धन्यवाद वीनस जी।
Comment by वीनस केसरी on July 26, 2013 at 3:42am

सुन्दर मुक्तक हैं ...
बधाई स्वीकारें

Comment by Ravi Prakash on July 23, 2013 at 9:22pm
thank you..
Comment by annapurna bajpai on July 23, 2013 at 7:36pm

adarniy ravi prakash bhai ji , bahut hi sundar rachna , badhai .

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 23, 2013 at 7:13pm

तीनो ही बहुत सुन्दर मुक्तक | हार्दिक बधाई श्री रविप्रकाश जी सादर 

Comment by Ravi Prakash on July 23, 2013 at 5:47pm
धन्यवाद प्राची जी!

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on July 23, 2013 at 5:32pm

आदरणीय रविप्रकाश जी 

मुक्तक विधा को निभाते हुए तीनों ही मुक्तक अपने मधुर कथ्य से पाठक को मुग्ध करते हैं 

बहुत बहुत बधाई स्वीकारें 

Comment by Ravi Prakash on July 22, 2013 at 7:58pm
आपका धन्यवाद
Comment by Ketan Parmar on July 22, 2013 at 7:37pm

आपको हार्दिक बधाई!

Comment by Ketan Parmar on July 22, 2013 at 7:37pm

1. नहीं शिकवा नज़ारों से अगर नज़रें फिसल जाएँ,
भले ख़ामोश आहों में सुहाने पल निकल जाएँ।
तेरी मग़रूर चौखट पे नहीं मंज़ूर झुक जाना,
हमेशा का अकेलापन भले मुझ को निगल जाए॥

Umda

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