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दरिया के साथ कभी बहता नहीं,

वृक्ष किनारे पे अभिज रहता नहीं ।

तमन्ना है दिये जला करूं रौशनी,

आतिश के शोले मगर सहता नहीं ।

कैसे करें, क्यों करें उस पे यकीं,

मन की बात खुल के कहता नहीं ।

शहर मेरे कैसा मौसम आ गया,

घुगिओं का जोड़ा मुंडेर रहता नहीं ।

शहर ने पत्थरों के घर बना लिए,

छत पे पक्षी घोंसलों में रहता नहीं ।

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on February 23, 2013 at 8:09am

सुन्दर रचना.

Comment by Dr.Ajay Khare on February 20, 2013 at 3:01pm

GAGAR MAI SAAGAR DR SAHIB BADHAI

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