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आईने में एक प्रतिबिम्ब
खड़ा है मौन !
आँखों के पीछे से
आवाज आई - कौन ?

है कौन यह अपरिचित?
क्या है यह अपना मीत ?
यह कैसी है संवेदना?
यह किसकी है सदा ?
क्या कहीं ढह गई..
जन्मांतर की भीत ?

किससे मिलने को
मैं हूँ आमादा ?
क्यों है हृदय मेरा
इतना द्रवित ?

सदियों से जीवित यह आत्मा, कभी-कभी इस शरीर की सांसारिक पूर्णता से विमुख होकर कुछ ढूँढती है ! क्या उसे कोई पुरानी कड़ी याद आती है ?

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Comment

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Comment by Anwesha Anjushree on February 6, 2013 at 6:31pm

Sourabh ji..I understood that very well after reading ur comment..anyways Thanx


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 5, 2013 at 10:49pm

शायद मैं ऐसे विषय नहीं समझ पाता. आदरणीया अन्वेषाजी, आपने सही कहा है. 

सादर

Comment by Anwesha Anjushree on February 5, 2013 at 6:49pm

सौरभ जी मेरे लेख को ध्यान से पढने के लिए शुक्रिया ! आत्मा कालखंड में आबद्ध  नहीं है, यह अमर है, पर  यह वस्त्र बदलती है, नए वेश भूषा में कुछ पल ठहरती है ! मेरे लिखने का अर्थ यही था !


इस समाज में सोच के कुछ दायरे है , मनुष्य किस बात में सुख पायेगा, किस बात में दुखी होगा , इस पर भी समाज कुछ सोच रखता है ! भौतिक और मानसिक रूप से सुखी या दुखी होने के बारे में भी यह समाज  एक सोच रखता है ! मैंने उसी को सांसारिक पूर्णता कहा है ! मेरी  आत्मा इस समाज के नियमो सा चले, यह जरुरी तो नहीं, जिस बात से समाज में लोग खुश हो, मेरी आत्मा भी उससे खुश हो, यह जरुरी तो नहीं !
मनोदशा की बात अगर कहे तो मैं यह कहूँगी की साधारण चिंता धारा से मेरी सोच अलग है ! 
नमन 

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 5, 2013 at 7:11am

अन्वेषा जी, अनवरतता को स्वर देती आपकी यह विचारपरक कविता बहुत कुछ कहती हुई लगी. कहे से अधिक अनकहे को इंगित करती. अपनी अनुभूतियाँ ही हमारी आदतें होती हैं, जोकि लभ्य-अप्राप्य के प्रति तोष या फिर चाह का कारण हैं. यही आदतें निरंतरता को जीती हुई क्रमशः परिपाटियाँ और फिर संस्कार बनती हैं. आपकी कविता सही कह रही है कि यह सारा कुछ किसी एक जन्म से बँधा नहीं है, बल्कि यह सारा कुछ जीव के भौतिक प्रादुर्भावों की एक शृंखला की कड़ियों से प्राण पाता, संतुष्ट हुआ करता है.

भाव-दशा बहुत सुन्दर ढंग से बहे हैं. इस कविता के लिए बहुत-बहुत बधाई.

एक बात :

//सदियों से जीवित यह आत्मा, कभी-कभी इस शरीर की सांसारिक पूर्णता से विमुख होकर कुछ ढूँढती है ! क्या उसे कोई पुरानी कड़ी याद आती है ?//

यहाँ आत्मा शब्द समीचीन नहीं है. आत्मा अनवरत है. वह कालखण्ड में आबद्ध नहीं. दूसरे, सांसारिकता है ही अपूर्णता का पर्याय. फिर सामासिक शब्द ’सांसारिक-पूर्णता’ क्या इशारे करता है. सांसारिक और भौतिक प्राप्तियों के प्रति ’प्रत्याहार’ के भाव संतुलित मन, संयत वृत्ति तथा उन्नत संतोष का परिचायक हैं, अन्वेषाजी.

आप जो कुछ कहना चाहती हैं वह संभवतः मैं समझ रहा हूँ किन्तु इस तरह की मनोदशा से संबंधित शब्दों का अपना अलग संसार हुआ करता है, मैं उसी ओर इंगित कर रहा हूँ.

सादर

Comment by Anwesha Anjushree on February 4, 2013 at 10:25pm

Shri Laxman Prasad ji , Ajay ji, Arun ji, vijay ji, Ram Shiromani ji aur Vijay ji....meri rachna ko padhne ke liye aur pasand karne ke liye shukriya...naman aap sabhi ko

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 4, 2013 at 4:21pm

आत्मा तो अमर है, यह तो सांसारिक भौतिक जीवन में चौला बदलती हुई अमर ही रहती है  इसको पहचानना

और ईश्वर की अमुल्य दें मानते हुए इसमें स्फुरित शब्दों का अहसास करना, आद्यात्म की ओर कदम बढ़ाना है।

आपकी बहुत सुन्दर अभ्व्यक्ति की लिए हार्दिक बधाई अन्वेषा अन्जुश्री जी  

Comment by Dr.Ajay Khare on February 4, 2013 at 2:44pm

bah bah bah anvesha madam dil ko chuti hui rachana he bhdhai aap ki lekhan ki jitni bhi pareef ki jaye kam he

Comment by अरुन 'अनन्त' on February 4, 2013 at 11:35am

आदरेया बेहद सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई स्वीकारें.

Comment by विजय मिश्र on February 4, 2013 at 11:28am

सुन्दर रचना ,साधुबाद 

अन्वेषाजी के पास भी हैं कुछ प्रश्न अनुत्तरित और कुछ पहचान हैं गौण ,तभी तो उपस्थित होता है यह --- कौन ?

Comment by ram shiromani pathak on February 4, 2013 at 11:20am

है कौन यह अपरिचित?
क्या है यह अपना मीत ? 
यह कैसी है संवेदना?
यह किसकी है सदा ?
क्या कही ढह गई..
जन्मांतर की भीत ?

सुन्दर  अभिव्यक्ति।

आदरणीया अन्वेषा जी:  बधाई आपको,

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