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गैस होगी न कोयला होगा
चूल्हा ग़मजदा मिला होगा

पेट रोटी टटोलता हो जब
थाल में अश्रु झिलमिला होगा

भूख की कैंचियों से कटने पर
सिसकियों से उदर सिला होगा

चाँद होगा न चांदनी होगी
ख़्वाब में भी तिमिर मिला होगा

भोर होगी न रौशनी होगी
जिंदगी से बड़ा गिला होगा

लग रहा क्यूँ हुजूम अब सोचूँ
मौत का कोई काफिला होगा

बेबसी की बनी किसी कब्र पर
नफरतों का पुहुप खिला होगा

अब बता "राज"दोष है किस का
जिंदगी ने उसे छ्ला होगा

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 8, 2012 at 8:41am

प्रिय प्राची जी आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 8, 2012 at 8:40am

हार्दिक  आभार विनीता शुक्ल जी बहुत ख़ुशी है आपको ग़ज़ल पसंद आई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on November 8, 2012 at 8:14am

ह्रदय कचोटने वाले भावों को बहुत खूबसूरती से पेश किया गया है.. इस संवेदनात्मक ग़ज़ल के लिए बधाई आदरणीया राजेश जी 

Comment by Vinita Shukla on November 8, 2012 at 4:58am

अद्भुत एवं प्रभावी अभिव्यक्ति. बधाई राजेश कुमारी जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 7, 2012 at 6:41pm

पुनः हार्दिक आभार सौरभ जी |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 7, 2012 at 6:03pm

संशोधन का उचित प्रयास हुआ है, आदरणीया राजेश जी.  बह्र पर मन जमता ज अरहा है.

वैसे क़ब्र वाले मिसरे पर कुछ विशेष हुआ क्या ?

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 7, 2012 at 11:45am

आदरणीय रविकर  भाई हार्दिक धन्यवाद सच में इस मंच पर हम सभी सीख रहे हैं 

Comment by रविकर on November 7, 2012 at 11:40am

छला जिंदगी ने उसे, वो नफरत का फूल ।--गजल से

सीख रहा नित गजल के, सभी जरुरी रूल ।।-रविकर के लिए

आदरणीय राजेश दी ।

शुभकामनायें ।
उन्नत भाव ।।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 6, 2012 at 8:56pm

आदरणीय सौरभ जी आपके कहे के अनुसार एडिट कर रही हूँ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 6, 2012 at 7:46pm

बशीर बद्र के उद्धृत मतले को देखिये, काफ़िया ’आ’ ही होगा.  उला के  ’आसरा’ और सानी के ’क्या’ में मात्र ’आ’ ही कॉमन हैं. जबकि आपके प्रस्तुत मतले में उला के ’कोयला’ और सानी के ’जला’ के हिसाब से ’अला’ कॉमन हो गये हैं. फिर हम सिर्फ़ ’आ’ को काफ़िया कैसे ले सकते हैं, है न ?

सादर

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