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हास्य से सराबोर गुदगुदाते पल

काश गर्मी के महीनों में भी जाड़ा होता
तो शबेवस्ल का मेरी यों न कबाड़ा होता
कैस ने फाड़ लिये जोशेजुनूं में कपड़े
पैरहन हमने तो लैला का ही फाड़ा होता

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 13, 2013 at 7:45pm

कल के विशिष्ट ग़ज़लकार, फ़रमूद भाई.. .

आपकी हास्य ग़ज़लें इलाहाबाद की उस परंपरा का निर्वहन करती हैं जिसकी नींव अकबर इलाहाबादी डाल गये हैं. कल फ़रमूद भाई पनी रौ में थे.. !!!

:-))))) ..

रटता आया रट्टू तोता आता जाता कुछ नहीं

बना है अकबर का पोता आता जाता कुछ नहीं..   हा हा हा हा.. .

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