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शास्त्र(scripture)

यह सार्वभौमिक रूप से सभी युगों में , सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाता रहा है कि धर्म ही मनुष्य जीवन की मुख्य धारा है। जीवधारियों की वही जीवनी शक्ति है, यही नहीं वह उनकी जीवन यात्रा का मार्गदर्शक और धन का स्रोत है। शब्द के व्यापक अर्थ में सभी सजीव या निर्जीव पदार्थों, सबका  अपना अपना धर्म होता है अर्थात् धर्म उस पदार्थ के अस्तित्व को प्रकट करता है। उसके संकीर्ण अर्थ में निर्जीव पदार्थों में धर्म का प्राकट्य कम और सजीवों में अधिक होता है। मनुष्यों में मानवेतर प्राणियों के धर्म का जन्मजात समावेश रहता है परंतु मानवों का धर्म इससे बहुत अधिक होता है वह जीवन के प्रत्येक पहलु में प्रविष्ठ रहता है। इसलिये धर्म वास्तव में नियंत्रक और सच्चा मार्गदर्शक होता है, प्रेरक बल और मनुष्यों का रक्षक होता है, वह एक उत्तम और व्यापक आदर्श होता है जो मानव जीवन के हर पहलु का निश्चित, साहसी और स्पष्ट दिशा निर्देश देता हैं, न केवल व्यक्तिगत दिनचर्या का वरन् उसकी समग्र क्रियाओं और प्रेरकों के संबंध में आध्यात्मिक प्रेरणा भी देता है जो उसे ईश्वर के निकटतर लाने में सहायक होता है। सच्चे धर्म शास्त्र वही हैं जिनमें इन सभी शर्तों का समावेश होता है और ‘‘शासनात् तारयेत यस्तु सः शास्त्रः परिकीर्तितः‘‘ की परिभाषा से पारिभाषित होते है। अन्य धर्मग्रंथ जो इन शर्तों के अनुरूप नहीं हों  और इस परिभाषा का पालन नहीं करते उन्हें सत्य का पथप्रदर्शक नहीं माना जा सकता। यहाॅं यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि सच्चे धर्मशास्त्रों में स्पष्ट दिशानिर्देश होना चाहिये जिनका पालन सभी लोग अपने जीवन में  तो करें ही दूसरों को भी मार्गदर्शन  कर सकें।

हम सभी रस के अनन्त महासागर में रहते हैं, इसमें कभी समाप्त न होने वाले स्रजन का विकिरण, अर्थात् सभी छोटी और बड़ी अवर्णनीय अभिव्यक्तियों का स्पंदन, उच्चारित और अनुच्चारित अलौकिक विचार तरंगों के रूप में, भीतर और बाहर सभी दसों दिशाओं में,  हिलोरें ले रहा है। इसलिये परम सत्ता की प्रत्येक संरचना के साथ उचित और विवेकपूर्ण व्यवहार करते हुए उसका ध्यान रखना चाहिये जो कि इन विभिन्न रचनाओं का सारतत्व है। अपने आपको कुमुदिनी के आदर्श पर ढालने का प्रयत्न करना चाहिये जो कीचड़ में खिलती है और अपने अस्तित्व के रक्षण में दिन रात कीचड़ भरे पानी, झंझटों तथा भाग्य के थेपेड़ों और तूफानों के आघात सहती है फिर भी अपने ऊपर दिखने वाले चंद्रमा को नहीं भूलती वह अपना प्रेम उसके साथ स्थायी रूप से जीवित रखती है । वह एक साधारण फूल ही है उसमें असाधारण कुछ नहीं है फिर भी वह अपनी सभी इच्छायें चंद्रमा पर केन्द्रित रखकर अपना रोमान्स महान चंद्रमा के साथ बाॅंधे रहती है। हो सकता है हम बहुत ही साधारण व्यक्ति हों और साॅंसारिक जीवन में अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिये  उतार चढ़ाव से अपने दिन काट रहे हों  परंतु हमें उस परम सत्ता को नहीं भूलना चाहिये, हमारी सभी इच्छायें उसी की ओर झुकी रहना चाहिये, सदा ही उसी के विचारों में डूबे रहना चाहिये, उसके अनन्त प्रेम में डूब जाने पर साॅंसारिक गतिविधियाॅं प्रभावित नहीं होंगी। परिस्थतियां चाहे जैसी भी क्यों न रहें परम सत्ता से अपनी निगाहें नहीं हटना चाहिये। जिन्होंने  अपने जीवन का आदर्श और लक्ष्य उस परम सत्ता को बना लिया है उसका पतन नहीं हो सकता। चित्त में जड़ और तुच्छ विचारों के आ जाने पर उन्हीं के अनुसार निम्न स्तरों पर ही अगला जन्म  पाना होगा यह प्रकृति का नियम है। जैसे भरत मुनि, उत्कृष्ट साधक होते हुए भी अंत में हिरण पर चिंतन करने के कारण अगले जन्म में हिरण के जीवन को पाकर उन्हें वह संस्कार भोगना पड़ा। इसलिये सतर्क रहकर परमपुरुष पर ही अपना समग्र चिंतन जमाये रखना ही सभी मनुष्यों का कर्तव्य है, ताकि वे सभी आनन्द के पथ पर चलते हुए अपने लक्ष्य को पा सकें। धर्मशास्त्र और सद साहित्य इस कार्य में संजीवनी का काम करते है।

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Replies to This Discussion

सुंदर बात कही है अपने आदरणीय | परमपुरुष परमेश्वर का ध्यान रखना चाहिए | उनसे प्रेम करना चाहिए और अपने मन और अपनी अनगिनित इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए | साधुवाद आदरणीय 

आदरणीया कल्पना जी!  आपने लेख पर चिंतन किया और उस पर अपने विचार व्यक्त किये। विनम्र  धन्यवाद।

इस प्रस्तुति का प्रथम भाग तनिक और विन्दुवत होता तो वह न केवल अनुमन्य होता बल्कि सोद्येश्य साझा करने योग्य भी होता. धर्म का अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा Religion है ही नहीं. क्यों कि Religion  की जो अवधारणा और परिभाषा के अनुसार सीमा है, धर्म उससे कहीं अधिक व्यापक, बहुआयामी और सर्वसमाही है. यह कर्तव्य और आचर्ण को निर्धारित करने के साथ-साथ जड़, स्थावर, सचेत संज्ञाओं के नैसर्गिक, अनुभूत तथा उद्भूत गुणों का परिचायक भी है. इसी कारण निवेदन है कि इस आलेख के विन्दु को तनिक और साधा जाय ताकि धर्म और पंथ का अर्थ स्पष्ट हो सके. Religion शाब्दिक और गुण सम्बन्धी अवधारणा से पंथ या सम्प्रदाय के निकट अधिक है.

लेकिन कहते हैं न, कुछ निहित स्वार्थी ’मठ’ और ’वाद’ इस विषय पर घोर अस्पृश्यता का आचरण दिखाते हैं.  कारण मात्र इतना ही है कि इसी बहाने हिन्दु परिपाटियों के मूल तथ्य तक की खिल्ली उड़ायी जा सके. इसकी अपनी निहित मंशा है. 

आदरणीय टीआर सुकुल जी, आप ऐसे विषयों पर कुछ प्रस्तुत करते समय लेखन में उदार व्यापकता बनाये रखें.  ताकि आम पाठक कई विन्दुओं पर स्पष्ट होता चले.

सादर 

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"आपका छांदसिक प्रयास मुग्धकारी होता है। "
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