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वर्तमान हिन्दू समाज में जातिगत विभीषिका को किस तरह समाप्त किया जासकता है?

  • वर्तमान हिन्दू समाज में जातिगत विभीषिका को किस तरह समाप्त किया जासकता है? 
  • क्या इस जातिगत भेद-भाव का धार्मिक आधार मनगढ़ंत है?
  • क्या वर्तमान में हमें इस शृंखला से बाहर नहीं निकाल आना चाहिए?
  • हर समस्या का निदान समस्या में ही निहित होता है, उसके बाहर नहीं।

ये कुछ प्रश्न मुझे बचपन से ही परेशान करते रहे। अन्य मायावी षट-कर्मों में लिप्त रहते हुए भी मैं इन पर मनन करता रहा इन्हें ही मैं आप लोगों के मध्य ले कर आया हूँ।

हिन्दू समाज में जातीय समस्या को समाप्त करने पर लिखा और कहा तो बहुत गया किन्तु उसको धरातल पर उतारने के मात्र कुछ ही प्रयास देखने को मिले हैं। कुछ दिनों पूर्व राजस्थान में एक दलित अधिकारी ने राज्य सचिव नहीं बनाए जाने पर धर्मांतरण कर लिया। रोहित की आत्महत्या के मुद्दे की गूंज हैदराबाद से होते हुए दिल्ली तक आ पहुंची है, किन्तु क्या यह सब यहीं थम जाएगा? डॉ. भीम राव अंबेडकर के जाति उन्मूलन प्रयासों का परिणाम,क्या बौद्ध धर्मांतरण ही तय था? वर्तमान में ‘दलित आंदोलन’ क्या खेल ही बना रहेगा। क्या दलित, दलित ही बने रहना चाहता है?

जातीय समस्या पर उबाऊ, जटिल और पांडित्य प्रदर्शन करती हुई अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। किन्तु कोई पुस्तक इस समस्या के निदान तक नहीं पहुँच पाई। इन पुस्तकों की शुरुआत तो आदर्शमय होती है किन्तु निदान की पायदान से पहले ही ये दम तोड़ देती हैं। सच कहूँ तो हिन्दू धर्म में जाति व्यवस्था को अपनाते हुए भी उस से तथाकथित शूद्र वर्ण के उन्मूलन पर व्यावहारिक रास्ता दिखलानेवाली शायद ही कोई पुस्तक प्रकाशित हुई हो।  

देखा जाए तो हिन्दू समाज से जातीय दुराग्रह को समाप्त करने का गंभीर प्रयास धर्म के मठाधीशों द्वारा नहीं किया गया। कौन मूर्ख है जो जान बूझ कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा? यदि धर्म में सम-भाव ले आए तो विभिन्न मत-मतांतरों के नाम की आपकी दुकान कैसे चलेगी? लेखक ने एक स्थान पर लिखा भी है ‘हमें सजग रहना होगा उन शक्तियों से जो एक चिर-परिचित शैली में धार्मिक परिसर में अपनी महंतशाही जमा कर बैठी हुई हैं। जैसे-जैसे नए विचार का आलोक फैलेगा वैसे-वैसे आडंबर का प्रवचन कर रहे डेरे, समागम, संस्थाएं और ढेरों-ढेर मत-मतांतर अपनी संगठन शक्ति क्षीण होता हुआ पाएंगे।

सादर,

सुधेन्दु ओझा

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Replies to This Discussion

आदरणीय !
जातियां समय समय पर लोगों में हुए स्वार्थमय संघर्ष का परिणाम हैं। शास्त्र सम्मत तो केवल वर्ण ही हैं जो केवल गुणों और कर्मों के अनुसार ही विभाजित किये गए हैं जन्म से नहीं। इसका अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने गुणों और कर्मों को परिमार्जित कर तदनुसार वर्ण प्राप्त कर सकता है।

आपने यह सही कहा है कि आज ये जातीय भेद भाव स्वार्थी राजनैतिकों के लिए चुनाव जीतने के लिए अचूक अस्त्र और शस्त्र की तरह प्रयुक्त होते हैं।

मेरे विचार से इसके पीछे पूंजीवादियों का ही चिंतन है जो इस भेद को पाले रहना चाहते हैं जबकि चर्चाएं इस प्रकार की करते हैं जिससे लगता है कि ये इसे दूर करने के लिए कटिबद्ध हैं। जब लोग पहाड़ों पर रहते थे तो उस पहाड़ के सभी लोग आपस में अपने को एक ही परिवार का सदस्य मानते थे और सबसे शक्तिशाली को अपना लीडर। कालांतर में जब विवाह की प्रथा प्रारम्भ हुई तो यह नियम बनाया गया कि एक ही गोत्र में विवाह नहीं किया जा सकेगा। संस्कृत में गोत्र को पहाड़ कहते हैं। पहाड़ों से जब मैदानो में निवास करने लगे तब यह परिवर्तित होकर एक ही गाँव के युवक युवतियों का परस्पर विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाया गया। अब जब कि गांव, शहर ,महांनगर की दूरियां समाप्त हो रहीं हैं और ग्लोबल समाज की रचना हो रही है तो क्या यह उचित नहीं होगा कि अब हमें अपनी ही जाति में विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाकर अंतर्जातीय विवाह करने की प्रथा को प्रोत्साहित करें ?
यही एक उपाय है जिससे जातिभेद समाप्त किया जा सकता है , परन्तु इसके ध्वज वाहकों के लिए स्वयं उदहारण बनकर नयी सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात करना होगा, तभी हम ऋषियों के इस कथन का अनुभव कर पाएंगे कि "परमपुरुष हमारे पिता और परमा प्रकृति हमारी माता है तथा यह त्रिभुवन हमारा घर।"

परम आदरणीय,

  • जिस प्रकार जातियाँ आईं ठीक उसी प्रकार से जातियों से पूर्व वर्ण आए होंगे?
  • जातीयता केलिए मैंने किसी को दोषी नहीं कहा है। न ही राजनैतिक दलों को और न ही समाज को।
  • इसमें पूंजीवाद और साम्यवाद को भी मैं दोष नहीं देरहा।
  • वृहत्त परिप्रेक्ष्य में मात्र अंतरजातीय विवाह ही इस समस्या का निदान नहीं होसकता।
  • यह सब मानव निर्मित है।

आप विषय मंच पर पधारे, धन्यवाद।

सादर,

सुधेन्दु ओझा

जातिप्रथा

जाति प्रथा, कुरीतियाँ कैसे समाप्त हो सकती है? जब तक इन्सान स्वार्थी बने रहेंगे तबतक न कुरीतियाँ ,न जातिप्रथा, न तथाकथित धर्माचायों के कुचक्र का अंत होगा | स्वार्थ के कारण मनुष्य के व्यवहार में विरोधाभास उत्पन्न हो गया है, जिसे प्रचलित भाषा में (दोहरी नीति ) दोगलापन कहते है | हम अपनी लड़की की शादी के समय बड़े आदर्शवादी बन जाते हैं और  कहते हैं कि हम दहेज़ में विश्वास नहीं करते , दहेज़ लेना और देना दोनों कानूनन जुर्म है, इसीलिए न हम दहेज़ देंगे न लेंगे | परन्तु लड़के की शादी के समय हमारा मुहँ सिल जाता है | हम कुछ नहीं कहते परन्तु लड़की की तरफ से जितना आता है ,बिना प्रतिवाद किये हम रख लेते हैं|उस समय हमारी आदर्शवाद घास चरने जाती है | हम खुलकर नहीं कहते की हमें कोई चीज नहीं चाहिए, आप सब अपने पास रख लीजिये |

    आपने सही कहा, समस्या के ऊपर बहुत सारी किताबे मिल जाएँगी पर समाधान किसी में भी नहीं | शास्त्रों, पुरानों में भी बड़ी बड़ी आदर्श की बातें कही गयी है, जैसे “ उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बम” या फिर “सर्वे अपि सुखिनो सन्तु  ....” इत्यादि| परन्तु यह कौन सी उदारता है की मन्दिर में कुछ लोगो को जाने दिया जाता है और कुछ लोगो को नहीं ? उदारता की बात करने वाले के दिल में कुछ और स्वार्थ प्रेरित संकुचित भावना रहती है | वक्तव्य और व्यवहार में अंतर लगता है | जब तक वक्तव्य और व्यवहार में सामंजस्य नहीं होगा, जातिप्रथा, कुरीतियाँ समाप्त नहीं हो सकती | समाज को राह दिखाने वाले तथा कथित मठाधिशो की नियत में जब तक स्वार्थ होगा तब तक समाज में जातिप्रथा रहेगी |

व्यक्ति से परिवार बनता है और परिवार से समाज | जबतक हर व्यक्ति के विचार जात-पात, सड़े-गले कुरीतियों से ऊपर नहीं उठता है तबतक कोई सकारात्मक परिवर्तन की आशा कम है | यहाँ भी स्वार्थ है |

आदरणीय सुकुल जी ने अच्छी बात कही है की अंतर्जातीय विवाह से जाति प्रथा समाप्त हो सकती है | इसके लिए प्रथम आवश्यकता यह है कि हर माँ बाप अपने बच्चो को इसके लिए प्रेरित करे. और जाति में विवाह करने के लिए मज्बुर न करे | शुरुयात घर से होनी चाहिए | जाति प्रथा के समर्थक यह नहीं चाहते, न उसके संरक्षक मठाधीश | इससे उनकी दूकान बंद होने का खतरा है | गैर धर्म की बहु मठाधिशो को नहीं मानेगी| इससे उनके अहम् उनके स्वार्थ में आघात होगा |      

सादर 

कालीपद 'प्रसाद'

Part-1

 

 

 

 

सुधेन्दु ओझा

(9868108713)

 

  •  
  • नए ‘सनातन समाज’ का गठन
  • सभी हिन्दू-अहिन्दू अनिवार्यरूप से पढ़ें
  • चतुर्थ वर्ण का ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में आमेलन
  • हिंदुओं की आदर्श नई समाज संहिता

 

असंख्य समाचारपत्रों में असंख्य समपादकीय लिखते-लिखते विचार आया की आखिर उन लेखों का मूर्त लाभ क्या हुआ? जनता वैसी, समाज वैसा कुछ भी तो नहीं बदला। मैंने समाचारपत्रों में लिखना बंद कर दिया।

Ó   सुधेन्दु ओझा

(पुस्तक में व्यक्त विचार, संगठन के नाम, स्वरूप प्रक्रिया का अधिकार लेखक में निहित है। इसका उल्लंघन भारत सरकार के कापीराइट का उल्लंघन माना जाएगा)

वितरक : पूर्वाञ्चल प्रकाशन, सोनिया विहार, दिल्ली

(प्रकाशक : सनातन समाज ट्रस्ट, 495/2, द्वितीय तल, गणेश नगर-2, शकरपुर, दिल्ली-110092)

पृष्ठभूमि

प्रिय पाठकगण,

‘सनातन समाज की नई संहिता’ पुस्तक को आपके हाथों रखते हुए बहुत प्रसन्नता और संतोष की अनुभूति हो रही है। यह मात्र पुस्तक ही नहीं एक विचार पुञ्ज आपको दे रहा हूँ। हो सकता है आप में से ही कोई तेजयुक्त महानुभाव इस विचार पुञ्ज से पूरे विश्व को दैदीप्यमान करने वाला बने।

इस पुस्तक की रचना किसी पुरस्कार, पारितोषक, मान, सम्मान हासिल करने के उद्देश्य से नहीं हुई है। समाज के एक वर्ग की अनंत काल की पीड़ा और वेदना के सागर से कुछ विचार माणिक्य निकाल कर इस पुस्तक को रचने का प्रयास हुआ है। इस पीड़ा और वेदना में, पीड़ा और वेदना देने वाले समाज के विरुद्ध आक्रोश नहीं है, एक संकल्प है। संकल्प भी कौटिल्य वाला शिखा खोल कर लिया गया संकल्प। कौटिल्य का संकल्प नंदराज के समूल नाश का था, हमारा संकल्प पीड़ा और वेदना देने वाले समाज के विरुद्ध है। हम ‘सनातन समाज की नई संहिता’ के आलोक में पीड़ा और वेदना मुक्त, ‘सनातन समाज’ का गठन और धर्म के क्षरण को रोकते हुए विश्व में उसकी महत्ता को पुनर्स्थापित करेंगे।

‘सनातन समाज’ के इस लक्ष्य को हम शांतिपूर्वक, सह अस्तित्व की भावना अपनाते हुए हासिल करेंगे किन्तु हमें सजग रहना होगा उन शक्तियों से जो एक चिर-परिचित शैली में धार्मिक परिसर में अपनी महंतशाही जमा कर बैठी हुई हैं। जैसे-जैसे इस पुस्तक का आलोक फैलेगा वैसे-वैसे आडंबर का प्रवचन कर रहे डेरे, समागम, संस्थाएं और ढेरों-ढेर मत-मतांतर अपनी संगठन शक्ति क्षीण होता हुआ पाएंगे। ‘सनातन समाज’ की तरफ खिसकते हुए अपने जनाधार से कुपित वे समाज के लिए अप्रिय स्थिति को जन्म देंगे और उसका दोष ‘सनातन समाज’ के सिर रखेंगे। हमें ऐसी ताकतों से पहले से ही सावधान रहना है।

यह पुस्तक आगामी ‘सनातन समाज’ का संदर्भ और मूल ग्रंथ बने इस उद्देश्य से इस में समाज के हर पहलू को छूने और उसे परिभाषित करने का प्रयत्न रहा है, इतने श्रम के बावजूद कई विषय चर्चा की परिधि से छूट गए हैं, समय-समय पर इन पर निर्देश, स्पष्टीकरण वेबसाइट www.sanatansamaj.in पर उपलब्ध कराए जाते रहेंगे।

यहाँ बताता चलूँ कि देश भर में ‘सनातन समाज’ का ढांचा मात्र खड़ा करने के लिए हमें प्रचारक, न्यायाधिपति, कथावाचक जैसे हजारों की संख्या में कार्यकर्ताओं की आवश्यकता रहेगी। जो बांधव इस दिशा में योग्यतानुसार योगदान करना चाहें वे हमें वेबसाइट/ई-मेल के माध्यम से संपर्क कर सकते हैं।

‘सनातन समाज’ का आधार तैयार हो सके और उसे कुछ वित्तीय सहायता हासिल हो सके इस उद्देश्य से इस पुस्तक से प्राप्त समस्त आय को मैंने ‘सनातन समाज ट्रस्ट’ के नाम कर दिया है। इसी उद्देश्य से पुस्तक का मूल्य भी निर्धारित किया गया है।   

मैं शहर में रहकर भी ग्रामीण ही रहा। इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ, क्योंकि इसने मेरी सोच को कंक्रीट की चहारदीवारी में क़ैद नहीं होने दिया। मुझे चाँद-सितारों को खिड़की से देखने को मजबूर नहीं किया। आम, अमरूद, महुआ, आंवला, बेल, शरीफे, शीशम और सागौन को पहचानने केलिए मुझे किसी से पूछने की आवशयकत नहीं पड़ती। गेहूं, धान, ज्वार, बाजरा कब पैदा होता है इसकेलिए मुझे संदर्भ साहित्य नहीं तलाशना पड़ता।

लाल चोंच वाला, काली कंठी का तोता, लाल मुंडी का छोटा अलेक्सेन्ड्रियन तोता, पहाड़ी तोता, धनेस, बुलबुल, तीतर, बटेर, हारिल को मेरी निगाहें स्वतः ढूंढ़ निकालती हैं। आप में से कुछ सोच रहे होंगे की यह भूमिका आख़िर किस लिए? यह सब इतना स्पष्ट करने केलिए है कि मुझे आम आदमी से मिलने केलिए एसी कार से निकल कर सड़क पर आने की ज़रूरत नहीं पड़ती। मुझे मेरे देश के गाँव, देहात ने इसे बखूबी से समझाया है।

हालांकि, जब मैं तीन-चार वर्ष का ही था जब उत्तर प्रदेश के ज़िला प्रतापगढ़ के पृथ्वीगंज हवाई अड्डा के पास और सई नदी से सटे मकरी गाँव को छोड़ कर पिताजी के पास दिल्ली आगया था, किन्तु गाँव कभी मुझ से अलग नहीं हुआ।

मेरे दादा पंडित केशव दत्त ओझा, शिक्षक थे, प्राइमरी विद्यालय के हेडमास्टर, स्थानीय जमींदारों के पुरोहित भी। उनकी वजह से मुझे देश, समाज और निर्धनता की मजबूरियों को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। वे बहुत ही सहृदय, निश्छल किन्तु स्वाभिमानी व्यक्ति थे। शीतला, कुल देवी थीं, जिनकी उपासना उनका लक्ष्य था। आज पहला नवरात्र है, दादा वर्ष के दोनों नवरात्रों में नवों दिन उपवास रखते थे। सुबह शालिग्राम को सजा-धजा कर लंबी अर्चना, संध्या के समय आलू और सेंधा नमक से व्रत भंग। कांसे का एक छोटा सा बहुत प्यारा लोटा था, रस्सी से बंधा हुआ। प्यास लगने पर कुएं से पानी निकालने का काम उसी से सम्पन्न करते। इतने सब के बाद भी रंच मात्र भी रूढ़िवादिता भी उनमें ना थी।

स्कूल में गर्मियों के अवकाश में अक्सर ही गाँव जाना होता।

दादा का वही कार्य व्यवहार था। वे प्रातः उपासना पर बैठे होते, तभी से घर के सामने महिलाओं की लंबी लाइन लग जाती। साड़ी के पल्लू से अपना मुँह छुपाए, लोहे का कजरौटा और आँचल में नवजात लिए वे बेसब्री से दादा की पूजा समाप्त होने की प्रतीक्षा करतीं। दादा 1907 में पैदा हुए थे, उस समय हाई स्कूल पास थे और लाहौर में ‘सर गंगा राम अस्पताल’ में काम कर चुके थे। खांसी-बुखार की कुछ मान्य दवाएं नि:शुल्क ग्रामीणवासियों में वितरित करते थे।

परंतु मैं अनुभव करता था की लाइन में बैठी अधिकांश महिलाएं बच्चों को पूजा की भभूति को माथे पर लगवाने केलिए ही आती थीं।

मैं दादा जी से पूछता था कि ऐसा करके क्या वो अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं दे रहे?

दादा जी का जवाब था, मैं इन्हें बच्चों को ईलाज के लिए डॉक्टर के पास लेजाने को कहता हूँ, परंतु पूजा-अर्चना की भभूति को मस्तक पर लगाना, आस्थागत है, अच्छा संस्कार है। यहाँ से तदनंतर मुझे स्पष्ट होता गया कि वस्तुतः इस देश में आस्था और यह संस्कार, निर्धनता से भी अधिक व्याप्त है। कई बार कुछ समाज विश्लेषकों ने मुझे समझाने का प्रयास किया कि यह आस्था निर्धनता की वजह से है, वे सफल नहीं हुए। एक बार मेरे पिताजी गाँव के सम्पन्न सहपाठी राम करण पांडे के साथ साइकिल से लौट रहे थे। रास्ते में शंकर जी का पवित्र मंदिर पड़ता था, पाण्डेय जी ने साइकिल चलाते-चलाते दोनों हाथ जोड़ कर शिव मंदिर की तरफ देखते हुए आस्था से गर्दन झुकाई, पहिये के नीचे कंकड़ आगया। दोनों साइकिल सवार धम्म से नीचे आ पड़े। इस में कोई आर्थिक तत्व शामिल नहीं था, पर ‘आस्था’ शामिल थी।

गाँव के बगल में ही पासी बांधवों का मोहल्ला था, उनमें से बहुत बंधु साफ-सफाई का बराबर ध्यान रखते थे कोई व्रत, उपवास उनसे या उनके परिजनों से नहीं बचता था। माँ के प्रोत्साहन से उनके परिवार की महिलाएं घर के अन्तः कक्ष तक चली आती थीं, धीरे-धीरे उनके ही आग्रह पर वे माँ के साथ चूल्हे-चौके में भी हाथ बंटाने लगीं। गाँव में जब यह बात फैली तो बहुत बड़ी चर्चा का कारण बनी किन्तु धीरे-धीरे गाँव की फुस-फुसाहट शांत होगई। आज यह बात आपको सामान्य सी लग रही होगी, यह बात आज से 40-45 वर्ष पहले की बता रहा हूँ।

चूंकि मैं अपनी शिक्षा अवस्था में दिल्ली चला आया था इस कारण से जब गाँव जाता था तो वहाँ के सामाजिक परिवेश में जातिगत ढांचे को समझ नहीं पाता था। किन्तु जैसे-जैसे बड़ा हुआ, समझ भी बढ़ी और समाज और जाति का तिलस्म भी खुलता चला गया। जैसे-जैसे यह तिलस्म खुला, वैसे-वैसे वह मुझे बहुत सारे प्रश्न देता चला गया। कुछ और बड़ा हुआ तो राष्ट्र के इतिहास को बारीकी से पढ़ने का अवसर मिला। देश के दूरस्थ स्थानों को देखने और अनुभव करने का भी मौका मिला। सुदूर दक्षिण में कोचीन के आगे वेलिंगटन द्वीप समूह के दौरान ‘कलाडि’ को दूर से प्रणाम करने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ। यही वह स्थान था जहां इस देश को एक धर्मसूत्र में बांधने वाले आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ था।

वह अपने माता-पिता की एकमात्र सन्तान थे। बचपन मे ही उनके पिता का देहान्त हो गया। शंकर की रुचि आरम्भ से ही संन्यास की तरफ थी। अल्पायु मे ही आग्रह करके माता से संन्यास की अनुमति लेकर गुरु की खोज मे निकल पडे।। वेदान्त के गुरु गोविन्द पाद से ज्ञान प्राप्त करने के बाद सारे देश का भ्रमण किया। मिथिला के प्रमुख विद्वान मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ मे हराया। आदि शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के प्रणेता थे। उनके विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है। स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारत में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डित।

शंकराचार्य के दर्शन में सगुण ब्रह्म तथा निर्गुण ब्रह्म दोनों का हम दर्शन, कर सकते हैं। निर्गुण ब्रह्म उनका निराकार ईश्वर है तथा सगुण ब्रह्म, साकार ईश्वर है। जीव अज्ञान व्यष्टि की उपाधि से युक्त है। तत्त्‍‌वमसि तुम ही ब्रह्म हो; अहं ब्रह्मास्मि मैं ही ब्रह्म हूँ; 'अयामात्मा ब्रह्म' यह आत्मा ही ब्रह्म है; इन बृहदारण्यकोपनिषद् तथा छान्दोग्योपनिषद वाक्यों के द्वारा इस जीवात्मा को निराकार ब्रह्म से अभिन्न स्थापित करने का प्रयत्‍‌न शंकराचार्य जी ने किया है। ब्रह्म को जगत् के उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का निमित्त कारण बताए हैं। ब्रह्म सत् (त्रिकालाबाधित) नित्य, चैतन्यस्वरूप तथा आनंद स्वरूप है। ऐसा उन्होंने स्वीकार किया है। जीवात्मा को भी सत् स्वरूप, चैतन्य स्वरूप तथा आनंद स्वरूप स्वीकार किया है।

सारे देश मे शंकराचा‍र्य को सम्मान सहित आदि गुरु के नाम से जाना जाता है। मैं केनोपनिषद की बात करता हूँ जो तमाम तरह के प्रश्नों से ही भरा है। ‘किम कारणे अस्मि’ (मैं किस कारण से हूँ)। सामवेदीय 'तलवकार ब्राह्मण' के नौवें अध्याय में इस उपनिषद का उल्लेख है। यह एक महत्त्वपूर्ण उपनिषद है। इसमें 'केन' (किसके द्वारा) का विवेचन होने से इसे 'केनोपनिषद' कहा गया है। इसके चार खण्ड हैं। प्रथम और द्वितीय खण्ड में गुरु-शिष्य की संवाद-परम्परा द्वारा उस (केन) प्रेरक सत्ता की विशेषताओं, उसकी गूढ़ अनुभूतियों आदि पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे और चौथे खण्ड में देवताओं में अभिमान तथा उसके मान-मर्दन के लिए 'यज्ञ-रूप' में ब्राह्मी-चेतना के प्रकट होने का उपाख्यान है। अन्त में उमा देवी द्वारा प्रकट होकर देवों के लिए 'ब्रह्मतत्त्व' का उल्लेख किया गया है तथा ब्रह्म की उपासना का ढंग समझाया गया है। मनुष्य को 'श्रेय' मार्ग की ओर प्रेरित करना, इस उपनिषद का लक्ष्य हैं। 'ब्रह्म-चेतना' के प्रति शिष्य अपने गुरु के सम्मुख अपनी जिज्ञासा प्रकट करता है। वह अपने मुख से प्रश्न करता है कि वह कौन है, जो हमें परमात्मा के विविध रहस्यों को जानने के लिए प्रेरित करता है? ज्ञान-विज्ञान तथा हमारी आत्मा का संचालन करने वाला वह कौन है? वह कौन है, जो हमारी वाणी में, कानों में और नेत्रों में निवास करता है और हमें बोलने, सुनने तथा देखने की शक्ति प्रदान करता है?

शिष्य के प्रश्नों का उत्तर देते हुए गुरु बताता है कि जो साधक मन, प्राण, वाणी, आंख, कान आदि में चेतना-शक्ति भरने वाले 'ब्रह्म' को जान लेता है, वह जीवन्मुक्त होकर अमर हो जाता है तथा आवागमन के चक्र से छूट जाता है। वह महान चेतनतत्त्व (ब्रह्म) वाक् का भी वाक् है, प्राण-शक्ति का भी प्राण है, वह हमारे जीवन का आधार है, वह चक्षु का भी चक्षु है, वह सर्वशक्तिमान है और श्रवण-शक्ति का भी मूल आधार है। हमारा मन उसी की महत्ता से मनन कर पाता है। उसे ही 'ब्रह्म' समझना चाहिए। उसे आंखों से और कानों से न तो देखा जा सकता है, न सुना जा सकता है। वह सर्वज्ञ है, 'ब्रह्म' की अज्ञेयता और मानव-जीवन के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। गुरु शिष्य को बताता है कि जो असीम और अनन्त है, उसे वह भली प्रकार से जानता है या वह उसे जान गया है, ऐसा नहीं है। उसे पूर्ण रूप से जान पाना असम्भव है। हम उसे जानते हैं या नहीं जानते हैं, ये दोनों ही कथन अपूर्ण हैं। अहंकारविहीन व्यक्ति का वह बोध, जिसके द्वारा वह ज्ञान प्राप्त करता है, उसी से वह अमृत-स्वरूप 'परब्रह्म' को अनुभव कर पाता है। जिसने अपने जीवन में ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लिया, उसे ही परब्रह्म का अनुभव हो पाता है। किसी अन्य योनि में जन्म लेकर वह ऐसा नहीं कर पाता। अन्य समस्त योनियां, कर्म-भोग की योनियां हैं। मानव-जीवन में ही बुद्धिमान पुरुष प्रत्येक वाणी, प्रत्येक तत्त्व तथा प्रत्येक जीव में उस परमात्मसत्ता को व्याप्त जानकर इस लोक में जाता है और अमरत्व को प्राप्त करता है। वह अहंकार से परे है, एक बार उस ब्रह्म ने देवताओं को माध्यम बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की। इस विजय से देवताओं को अभिमान हो गया कि असुरों पर विजय प्राप्त करने वाले वे स्वयं हैं। इसमें 'ब्रह्म' ने क्या किया? तब ब्रह्म ने उन देवताओं के अहंकार को जानकर उनके सम्मुख यक्ष के रूप में अपने को प्रकट किया। तब देवताओं ने जानना चाहा कि वह यक्ष कौन है? सबसे पहले अग्निदेव ने जाकर यक्ष से उसका परिचय पूछा। यक्ष ने अग्निदेव से उनका परिचय पूछा-'आप कौन हैं? अग्निदेव ने उत्तर दिया कि वह अग्नि है और लोग उसे जातवेदा कहते हैं। वह चाहे, तो इस पृथ्वी पर जो कुछ भी है, उसे भस्म कर सकता है, जला सकता है। तब यक्ष ने एक तिनका अग्निदेव के सम्मुख रखकर कहा-'आप इसे जला दीजिये।' अग्निदेव ने बहुत प्रयत्न किया, पर वे उस तिनके को जला नहीं सके। हारकर उन्होंने अन्य देवों के पास लौटकर कहा कि वे उस यक्ष को नहीं जान सके। उसके बाद वायु देव ने जाकर अपना परिचय दिया और अपनी शक्ति का बढ़-चढ़कर बखान किया। इस पर यक्ष ने वायु से कहा कि वे इस तिनके को उड़ा दें, परन्तु अपनी सारी शक्ति लगाने पर भी वायुदेव उस तिनके को उड़ा नहीं सके। तब वायुदेव ने इन्द्र के समक्ष लौटकर कहा कि वे उस यक्ष को समझने में असमर्थ रहे। उन्होंने इन्द्र से पता लगाने के लिए कहा। इन्द्र ने यक्ष का पता लगाने के लिए तीव्रगति से यक्ष की ओर प्रयाण किया, परन्तु उसके वहां पहुंचने से पहले ही यक्ष अंतर्ध्यान हो गया। तब इन्द्र ने भगवती उमा से यक्ष के बारे में प्रश्न किया कि यह यक्ष कौन था?

इन्द्र के प्रश्न को सुनकर उमादेवी ने कहा-'हे देवराज! समस्त देवों में अग्नि, वायु और स्वयं आप श्रेष्ठ माने जाते हैं; क्योंकि ब्रह्म को शक्ति-रूप में इन्हीं तीन देवों ने सर्वप्रथम समझा था और ब्रह्म का साक्षात्कार किया था। यह यक्ष वही ब्रह्म था। ब्रह्म की विजय ही समस्त देवों की विजय है।' इन्द्र के सम्मुख यक्ष का अंतर्ध्यान होना, ब्रह्म की उपस्थिति का संकेत-बिजली के चमकने और झपकने-जैसा है। इसे सूक्ष्म दैविक संकेत समझना चाहिए। मन जब 'ब्रह्म' के निकट होने का संकल्प करके ब्रह्म-प्राप्ति का अनुभव करता हुआ-सा प्रतीत हो, तब वह ब्रह्म की उपस्थिति का सूक्ष्म संकेत होता है। जो व्यक्ति ब्रह्म के 'रस-स्वरूप' का बोध करता है, उसे ही आत्मतत्त्व की प्राप्ति हो पाती है। तपस्या, मन और इन्द्रियों का नियन्त्रण तथा आसक्ति-रहित श्रेष्ठ कर्म, ये ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के आधार हैं। वेदों में इस विद्या का सविस्तार वर्णन है। इस ब्रह्मविद्या को जानने वाला साधक अपने समस्त पापों को नष्ट हुआ मानकर उस अविनाशी, असीम और परमधाम को प्राप्त कर लेता है। तब इन्द्र को यक्ष के तात्विक स्वरूप का बोध हुआ और उन्होंने अपने अहंकार का त्याग किया। अन्त में ब्रह्मवेत्ता जिज्ञासु शिष्यों को बताता है कि इस उपनिषद द्वारा तुम्हें ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग दिखाया गया है। इस पर चलकर तुम ब्रह्म के निकट पहुंच सकते हो (भारत कोष)। मैं आश्चर्य में था कि आज से हजारों वर्ष पूर्व, यातायात और परिवहन साधनों के अभाव में किस प्रकार आठ वर्ष का बालक देश को धार्मिक सीमा में बांधने की दृष्टि रख सकता था?

मेरा उद्देश्य आपको किसी कथा-कहानी की दुनिया में ले जाना नहीं है, अपित्तु, इस के माध्यम से यह कहना है कि ‘वह’ जिसे हम लाखों नामों से बुलाते हैं, जिसका बोध भी है और जो बोधगम्य भी नहीं है, ‘वह’ सारे काम करवा लेता है। 

‘आपन सोचा होत नहिं, हरि सोचा तत्काल’, प्रारब्ध, विधि, सब कुछ व्यक्ति से स्वतः करवा लेता है। बत्तीस वर्ष की आयु में आदि शंकराचार्य निस्वार्थ वह सब कुछ कर गए जो आज इतनी सुविधाओं के होते हुए भी असंभव लगता है।

‘सनातन समाज की नई संहिता’ के साथ भी कुछ ऐसा ही समझिये, जातिगत, वर्णगत समाज और उसमें तथाकथित उच्चता का मोह हम में इतनी कमियाँ छोड़ गया कि आज हम सही रूप से उसका मूल्यांकन करने लायक भी नहीं बचे।

ब्राह्मण के ऊपर समस्या आई तो अन्य जातियों ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया। क्षत्रिय और वैश्य समस्याग्रत हुआ तो बाकी जातियों ने मुँह बिचकाते हुए यह प्रदर्शित किया जैसे कुछ हुआ ही ना हो। जब हिन्दू धर्म पर आघात हुए तब हमने उन्हें छोटे-मोटे मसले कह कर चलता किया। तथाकथित अन्य निम्न वर्णों की इतनी हैसियत नहीं थी कि वे अकेले कुछ कर पाते। धर्म के महंतों की आँखों के सामने हिन्दू समाज जीवित लाश बना रहा। अन्य धर्मावलम्बियों ने मौके का फायदा उठा कर जितना हिस्सा काटना चाहा काटा, और अभी भी काट रहे हैं। यह बहुत ही दुखद स्थिति है। यह इस बात को भी प्रदर्शित करता है कि बतौर मनुष्य तो हम जीवित हैं किन्तु बतौर हिन्दू समाज, जिसका मेरुदंड धर्म है वह क्षरण के कगार पर है।

विश्व में हम ही अकेले ऐसे हैं जो इस पर भी बेशर्मी दिखाते हुए हँस रहे हैं। गौरव से कह रहे हैं ‘कोई हमारे कितने भी अंग काट ले, हमारी हस्ती नहीं मिटा सकता।‘

हमने अपने अंगों को बचाने का कभी भी सार्थक प्रयास नहीं किया।

किन्तु, यह सब अब इतिहास की बात हो चुकी है। ‘सनातन समाज की नई संहिता’ के अंतर्गत एक ठोस और निर्भीक, सत्ययुक्त सिद्धान्त के साथ ‘सनातन समाज’ का जन्म हो चुका है।

हिन्दू समाज से लोक-अमंगलकारी साहित्य, तत्व, पदार्थों का चुन-चुन कर नाश कर ‘सनातन समाज’ हिन्दू धर्म को शीघ्र ही सर्वोत्कृष्टता के शिखर पर ले जाएगा, ऐसा हमें विश्वास है।

‘सनातन समाज की नई संहिता’ की रचना अवधि के दौरान इस बात का ज़िक्र अपने से वरिष्ठ रचनाकर जिनका मैं पितृवत सम्मान करता हूँ से किया। इस से पहले कि मैं उनसे अनुरोध करता, उन्होंने कहा कि पुस्तक तैयार होने से पहले मुझे अवश्य दिखलाना।

जब पुस्तक के लगभग सौ पृष्ठ लिखे गए तो मैंने पाण्डुलिपि उन्हें प्रस्तुत की। उन्होंने पाण्डुलिपि पढ़ने के बाद जो टिप्पणी की वह अक्षरशः नीचे लिख रहा हूँ :

  1. जातिगत व्यवस्था : “आर्य पक्ष की भूमिका का क्यों विवेचन नहीं हो रहा? क्यों नहीं बताते कि यह सब कुछ लोभियों का तिकड़म तांता है? आदि काल से आज तक।“

उनकी उपरोक्त टिप्पणी के बाद मैंने अनुलोम/प्रतिलोम विवाहों से उत्पन्न जातियों का संक्षिप्त वर्णन आगे रखा। यदि इस पर विषद चर्चा की जाती तो निश्चित रूप से मुझे विषयांतर कर देता।

  1.  ‘सनातन समाज’ में किसी भी अनुसूचित जाति/जनजाति बांधव के प्रवेश और उसके ऊपर के वर्ण में प्रवेश की सरलता पर उनकी टिप्पणी है कि “यह रास्ता असंभव है, गलत भी है। उनका सशक्तीकरण केवल आर्थिक विकास के द्वारा ही किया जासकता है।“

मैंने उनसे निवेदन किया कि आर्थिक विकास से हमारा विरोध नहीं है, किन्तु हम उसे समाज में सम्मान से जीने के उस के हक़ को भी प्राथमिकता देते हैं।

  1.  ‘सनातन समाज’ में प्रवेश के दौरान उपनयन संस्कार के प्रावधान पर उन्होंने लिखा “कर्मकाण्ड हिन्दू धर्म का कोढ़ बन चुका है। बचो। त्यागो।“

मेरा अनुरोध रहा कि ‘सनातन समाज’ कहीं भी वृहद कर्मकाण्ड पर बल नहीं दे रहा। जब कोई व्यक्ति दृढ़ निश्चय के साथ कोई प्रतिज्ञा अथवा व्रत लेता है तो संक्षिप्त अनुष्ठान उसकी दृढ़ता के फलीभूत होने की मंगलकामना केलिए ही हैं, इन्हें कर्मकाण्ड की दृष्टि से नहीं देखा जाना चाहिए।

इसी हेतु पुस्तक में हिन्दू समाज के सर्व मान्य सोलह संस्कारों के विवरण और उनके आयोजन अथवा त्यागने के विचार को तदनंतर जोड़ा गया।

  1. ‘सनातन समाज’ में अनुसूचित जाति/जनजाति/ तथा पिछड़ा वर्ग के सदस्य सरकारी लाभों को स्वेच्छा से तभी त्यागें जब लगे कि वे इतने सक्षम हो गए हैं कि उन्हें अब उनकी आवश्यकता नहीं रह गई है। इस पर उन्होंने लिखा “ऐसा” कभी किसी को लगेगा ही क्यों? आप कह रहे हैं कि दोनों हाथों में लड्डू हो जाएँ तो एक हाथ के फेंक दो?

-इस पर उन्हें स्मरण कराने की आवश्यकता पड़ी कि उन्होंने ही बिन्दु संख्या दो में उल्लेख किया है कि ‘उनका सशक्तिकरण केवल आर्थिक विकास के द्वारा ही किया जासकता है।‘ और सरकारी आरक्षण उन्हें यही प्रदान करने का प्रयास कर रहा है।

तत्पश्चात, उन्होंने कुछ और बातें रखीं जिनका स्पष्टीकरण भी अगले पैरा में देने का प्रयास हुआ है :

  • ‘सनातन समाज’ की परिभाषा और विवेचना।

-पूर्व में यह सोचा था कि इसे प्रश्न-उत्तर के माध्यम से पाठकों के सम्मुख रखूँगा किन्तु पुस्तक में एक अध्याय ही इसको समर्पित है।

  • ‘सनातन समाज’ में प्रवेश से लाभ क्या है? हानि क्या है?

-‘सनातन समाज’ में प्रवेश लेने से रंच मात्र की भी हानि नहीं है, इस बात से मैं सब को आश्वस्त कर सकता हूँ। क्योंकि इस समाज से जुड़ने के बाद आप कोई प्रिय वस्तु खोएंगे नहीं।

  • आपकी वर्तमान समाज/समाज व्यवस्था से परेशानी क्या है?

-मैं व्यक्तिगतरूप से समाज से परेशान नहीं हूँ। मैं मर्यादा में जो कुछ करता हूँ उसमें समाज का लेश मात्र भी दखल नहीं है। किन्तु मुझे यह परेशानी है कि समाज का ऐसा ही समान बर्ताव एक बड़े तबके के सदस्यों के साथ क्यों नहीं है?

  • आप पुरुषों को तो जैसे भी बन पड़े एक से ज़्यादा स्त्रियों से अंतरंग होने की सुविधा देना चाहते हैं। यह क्यों नहीं मानते कि मानव समाज का अर्धांग/पूर्णांग होने के नाते उसके भी कुछ जन्मजात अधिकार हैं। आपकी अवधारणा गलत है, असमान है।

-यह धारणा गलत है कि ‘सनातन समाज’ पुरुषों को एकाधिक विवाह की अनुमति मात्र इसलिए प्रदान कर रहा है क्योंकि उसका उद्देश्य समाज के पुरुषों को एक से ज़्यादा स्त्रियों से अंतरंग होने की सुविधा देना है। समझने का कष्ट करें, अंतरंगता तो क्षणिक होगी, उत्तरदायित्व तो स्थायी है। और ऐसे निर्णयों का एक इतिहास है। पूर्व रचित धर्मशास्त्रों में एकाधिक विवाहों को समाज की मान्यता प्राप्त थी, यह मैंने स्पष्ट किया है। कई बार समाज हित में कुछ निर्णय दूरगामी परिणामों/सामरिक कारणों को देख कर लिए जाते हैं, यह निर्णय भी ऐसा ही है। 

  • लेखक नर-नारी सम्बन्धों को लेकर दोहरे/छद्म मापदण्डों का शिकार प्रतीत होता है, गलत बात।

-दोहरे और छद्म मापदण्डों की कभी खुल कर या लिखित रूप में घोषणा नहीं की जाती। और यदि कोई निर्णय समाज हित में दैवीय उद्देश्यों की पूर्ति के लिए घोषित करके किया जाए तो इसमें छद्म या दोहरेपन की भावना कहाँ?

Part-2

मैं कृतार्थ हूँ उन सज्जन का कि उन्होंने मेरी प्रथम पाण्डुलिपि पर बेबाक टिप्पणियाँ कीं और उसे दस-पंद्रह दिनों के अंदर ही मुझे लौटा भी दिया। उनकी इन टिप्पणियों से मैं बहुत लाभान्वित हुआ। मैंने ‘सनातन समाज की नई संहिता’ को समग्र स्वरूप देने के लिए सच पूछिए तो और कड़ा परिश्रम किया। मुझे पुस्तक के स्तर को ऊंचा उठाने के लिए दिशा प्राप्त हुई। इस जुनून को लेकर मैं अगले तीन-चार महीने पुस्तक में चौबीसों घंटे व्यस्त रहा। पाठकों को यह बात अतिशयोक्तिपूर्ण लग रही होगी किन्तु यह वास्तविकता है। बहुत पहले से ही मैंने पुस्तक प्रकाशन का लक्ष्य दीपावली का रखा हुआ था। वर्ष 2016 से मैं ‘सनातन समाज’ के गठन को अमली जामा पहनाना चाहता था। सोते समय भी मैं पुस्तक के विचार बिन्दुओं में उलझा रहता था। यही स्थिति भोजन और गाड़ी चलाते समय तक बनी रहती थी। जो भी विचार आते उन्हें कंप्यूटर पर टाइप करता चलता था। एक सुबह प्रातः तीन बजे से आठ बजे तक कंप्यूटर पर सीधे टाइप करता चला गया। कंप्यूटर में जाने क्या खराबी हुई केवल सवेरे पाँच बजे तक का मैटर ही सेव हुआ, पाँच बजे से आठ बजे तक का मैटर उड़ गया। यह बहुत  ही दर्दनाक घटना थी। खैर, मुझे वह सब दोबारा टाइप करना पड़ा। पुस्तक लेखन के दौरान मुझे ऐसा एहसास बना रहा जैसे कोई अमूल्य असीम सत्य मेरे हाथ लग गया हो। इस सत्य को शीघ्रातिशीघ्र समाज के बीच ले जाना चाहता था। ‘सनातन समाज’ के ढांचे को खड़ा करने केलिए मुझे लग रहा था कि मेरे पास समय  कम रह गया है।  

इस परिश्रम का परिणाम यह रहा कि ‘सनातन समाज की नई संहिता’ को मैं वैचारिक और सैद्धान्तिक पक्ष से और मजबूती प्रदान कर सका। पुस्तक भी सौ पृष्ठों से खिसक कर लगभग दो सौ पृष्ठों तक पहुँच गई। पुनः मैंने पाण्डुलिपि उन्हीं सज्जन को सुपुर्द की। वे पुस्तक पढ़ते रहे और मुझ से फोन पर चर्चा करते रहे। वे पुस्तक का ज़िक्र तो छेड़ते किन्तु उसपर अपनी राय से अवगत ना कराते। कहते अभे तीस पेज तक पहुंचा हूँ, अब सत्तर पृष्ठ पर हूँ इत्यादि, इत्यादि। अंततः उन्होंने एक रविवार अपने निवास पर निमंत्रित किया। इस से दो दिन पूर्व ही मुझे रवि बत्रा का फोन प्राप्त हुआ था वो भी मुझ से और इन सज्जन से एक लंबे अंतराल के बाद मिलना चाहते थे। मेरी और रवि बत्रा की मुलाक़ात हुए भी बत्तीस वर्ष से अधिक बीत गए थे। जब मैं ‘शिखर वार्ता’ पत्रिका का दिल्ली ब्यूरो प्रमुख था तो वे हमारे यहाँ थे। बाद में वे इंडियन एक्स्प्रेस से होते हुए नेशनल दुनिया में चले गए थे। रवि ने अनुरोध किया था कि चलने के समय बता दीजिएगा। मुझे शकरपुर से वसुंधरा, गाजियाबाद जाना था। रवि, पटपड़गंज से आते।

किसी कारण से रवि मेरे साथ वसुंधरा नहीं जा सके। मैं अकेला ही लगभग दस बजे सवेरे उनके घर पहुंचा। उन्होंने पाण्डुलिपि मेरे हाथ में रखते हुए पूछा, ‘तुम्हें किस चीज़ की कमी है?’ मैं चुप रहा। वे बोले ‘पुस्तक में प्रवाह है पर जब तुम प्रश्न-उत्तर वाले अध्याय पर पहुँचते हो तो तुम्हारी भाषा धर्म गुरुओं वाली हो जाती है।‘ मैंने पूछा ‘क्या ऐसा नहीं होना चाहिए था?’

‘नहीं इसमें तो कोई बुराई नहीं है पर चूंकि मैं तुम्हें बचपन से जानता हूँ इस लिए अभी स्वीकार नहीं कर पा रहा हूँ।‘ हमारी पुस्तक के विभिन्न पहलुओं को लेकर लंबी चर्चा हुई। फिर जाने क्या हुआ बोले ‘ कादंबिनी वाला धनंजय, इस पुस्तक को देख ले तो और अच्छा रहेगा, उसके पिताजी प्रसिद्ध आर्य समाजी रहे हैं।‘ मैंने कहा कि मैं उन से ही बहुत संतुष्ट हूँ। फिर भी मैंने धनंजय जी को फोन किया वे कवि सम्मेलन के सिलसिले में चेन्नई जा रहे थे।

दोपहर तीन बज गए थे, मैं बिना खाना खाए चला था। उनसे प्रणाम कर आज्ञा लेनी चाही तो उन्होंने कहा रवि को फोन कर के देखो क्या पता चला आए।

रवि शाम चार बजे समोसे लिए हुए हाजिर हुए। इतने वर्षों के बाद की मुलाक़ात थी। पत्रकारिता जगत के बहुत सारे छूए-अनछुए प्रसंग और नाम आए। राय गणेश चंद्र, सुरेश सिन्हा, शीलेश शर्मा, उमा पंत, प्रभाष जोशी, बनवारी और जाने कौन, कौन। अंधेरा घिरने को आया तो सब लोग विदा हुए।      

घर पहुँचते ही मैंने पाण्डुलिपि खोल कर देखी, कुछ ही पृष्ठ बचे थे जिस पर उनकी पेंसिल नहीं चली थी। दिन भर की कवायद के बाद हिम्मत कम बची थी। भोजन के उपरांत वह भी पस्त हो गई।

अगले दिन मैं पाण्डुलिपि को देखने लगा। ‘वाह’, ‘बहुत बढ़िया’, ‘ओ पंडित जी फालतू की पंडिताई छोड़िए’, ‘हिंदीकरण करना चाहिए’, ‘भारतीय देश और समाज के अधः पतन का कारण धर्मच्युत आचरण या धार्मिक क्षरण ही है’, ‘हुह!’ जैसी टिप्पणियों से निकल कर उन्होंने ‘ओवरलीफ’ लिख कर पन्ने के पीछे अपनी दृष्टि से मुझे अवगत कराया। उन्होंने दूसरी पाण्डुलिपि पर जो लिखा वह नीचे लिख रहा हूँ, उनकी टिप्पणी के बाद ही के पैरा में मेरी अभिव्यक्ति है :    

  • ‘सनातन समाज’ में बालिकाओं के विवाह का दायित्व समाज का : (यह व्यवस्था त्रुटिपूर्ण है। व्यक्ति स्वातंत्र्य के विरुद्ध है।)

-‘सनातन समाज’ ने समाज की बालिकाओं के विवाह का दायित्व अपने ऊपर इस लिए लिया है कि बालिकाओं को परिवार पर आर्थिक बोझ न समझा जाए। इसका यह अर्थ नहीं है कि बालिकाओं के विवाह और उस पर व्यय का अधिकार उनके माता-पिता के हाथों से चला जाएगा अथवा, ‘सनातन समाज’ उनके इच्छा के विपरीत यह कार्य करेगा। यहाँ यह स्पष्ट किया जाता है कि समाज की बालिकाओं के विवाह में अधिकतम दो से ढाई लाख रुपए के व्यय का योगदान ‘सनातन समाज’ द्वारा किया जाएगा। दानार्थ न्यूनतम भौतिक सामानों यथा टेलीविज़न, फ्रिज, डबल-बेड, बर्तन, वस्त्रा-आभूषण और भोज पर यह व्यय किया जाएगा।   

  • महाराज : आपको महिलाओं के बेसहारा और असहाय होने की चिंता क्यों सताती रहती है? बेसहारा पुरुष कभी नहीं देखे- सुने। ऐसे पुरुषों (बेसहारा) के कल्याणार्थ आप सम्पन्न महिलाओं को अतिरिक्त पति रखने की व्यवस्था भी करा सकते हैं।

-ऐसा इस लिए है क्योंकि अन्य समाजों की अपेक्षा ‘सनातन समाज’ वास्तव में महिलाओं को विशेष सम्मान की दृष्टि से देखता है और वे बेसहारा और लाचारी के जीवन से बचें ऐसा समाज का सद्प्रयास रहेगा। एक बेसहारा महिला के साथ उस पर निर्भर बेसहारा बच्चे अथवा कोई अन्य सदस्य भी हो सकते हैं, जहां तक बेसहारा पुरुषों का प्रश्न है, ‘सनातन समाज’ का मत है कि पुरुष, स्वस्थ और सम्पूर्ण अंग के रहते हुए श्रम अथवा विद्या के माध्यम से वृत्ति अर्जित करे और परिवार का भरण-पोषण करे। ‘सनातन समाज’ पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था को स्वीकार करता है अतः ‘महिलाओं को अतिरिक्त पति रखने की व्यवस्था भी करा सकते हैं।‘ वाली बात इस समाज पर लागू नहीं होती।

  • महिलाओं के प्रति आपके दृष्टिकोण में आधारभूत त्रुटियाँ/दोष हैं। यह इस पुस्तक की सबसे बड़ी और बेहद अखरनेवाली कमी है।

-जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, ‘सनातन समाज’ में स्त्रियों को लेकर जो भी व्यवस्था है वह उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए ही है। उनकी अनिच्छा पर इसे उन पर हरगिज़ थोपा नहीं जाएगा। यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस सिलसिले में मेरी चर्चा छतीसगढ़ की सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी महोदया से हुई थी, पुस्तक को लेकर हुई चर्चा पर उन्होंने भी मुझ से पूछा था कि क्या ऐसा करके हम महिला के समान अधिकारों पर अंकुश नहीं लगा रहे?

तो मैंने उनके सामने एक स्थिति रखी थी। मैंने कहा यदि अभी आपको कोई कारोबार शुरू करने के लिए पाँच लाख रुपए दे दिये जाएँ तो आप क्या करेंगी? कुछ देर सोचने के बाद बोलीं पति से सलाह लेकर ही कुछ सोचूँगी। चाहे जितना समान अधिकार की बात हो जाए यदि स्त्री विवाहिता है तो पति ही उसका आश्रय है। कई स्थानों पर अपवादमय स्थिति हो सकती है कि पति की अपेक्षा पत्नी परिवार के संचालन में अधिक आर्थिक, शारीरिक योगदान करती होंगी, घर की स्वामिनी होगी किन्तु कमजोर स्थिति में भी रहकर पुरुष उसका संबल बना रहता है’ हाँ जब तक कि वह आलसी, मद्यप, व्यसनी अथवा कामचोर न हो।

  • ‘मैं’ को दबाकर चलना चाहिए था। यह प्रभाव देना ठीक नहीं कि ‘सनातन समाज’ आपकी रचना दृष्टि या री-डिस्कवरी है।

-‘सनातन समाज की नई संहिता’ पुस्तक से इस भाव को हटाया जा रहा है।

  • आश्रम व्यवस्था के वर्णन अधूरे मिलते हैं। मसलन गृहस्थाश्रम में किसी के मरने पर कोई पाबंदी नहीं थी विधुर अथवा विधवा तब क्या करते थे?

-‘सनातन समाज’ में आश्रम व्यवस्था का वर्णन प्रसंग वश किया गया है, और इस का समर्थन भी। यह व्यवस्था पुरुषों पर लागू होती है और इस का अनुपालन बाध्य नहीं है। वर्तमान में भी ‘सनातन समाज’ इसे एक आदर्श और कल्याणकारी व्यवस्था मानती है। सदस्यों को यथा शक्ति इसके अनुपालन की सलाह दी जाती है।

  • यह भी गले नहीं उतरता कि वानप्रस्थ में प्रवेश करते ही पुरुष भिक्षा आदि पर निर्भर करते थे। निर्बल अथवा रुग्ण वानप्रस्थियों या संन्यासियों के लिए क्या व्यवस्था थी?

-यह प्रश्न इतिहासगत स्थितियों से जुड़ा है। वर्तमान में ‘सनातन समाज’ वानप्रस्थी सदस्यों से यह कामना करते हैं कि वे अपने जीवन के अनुभवों का लाभ समाज में बांटें और लोकोपकारी संस्थानों के निर्माण में हाथ बंटाएं। संन्यासी सदस्यों की सेवा-सुश्रुषा हेतु ‘सनातन समाज’ द्वारा आश्रमों के निर्माण की व्यवस्था की जाएगी।  

  • आपने संततियों के नाम आदि पा लिए, बता दिये। लेकिन इनके गुण-लक्षणों के वर्णन भी होने चाहिए थे।

-अब इनकी आवश्यकता कहाँ? ‘सनातन समाज’ ने यह निर्धारित कर दिया कि आप स्वतः निर्णय लें कि आप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि गुणों में किसके अनुरूप हैं और उसके अनुसार आप अपना वर्ण चयन करें।

  • यह सिद्ध करना ज़रूरी है कि वर्तमान दोष-कवलित जाति ‘व्यवस्था’ का मूल यही सब था। और आज ऐसी संतान को सहज स्वीकार क्यों नहीं किया जाता?

-इतिहास के गड़े मुरदों को उखाड़ने का अब कोई औचित्य नहीं दिखाई पड़ता, और ना ही हमें अब इस पचड़े में पड़ना भी चाहिए।

  • क्या यह संभव है कि इन अनुलोम-प्रतिलोम वंश-वृक्षों के आधार पर वर्तमान ‘जाति व्यवस्था’ की व्याख्या की जसके? वर्तमान जातीय दल-दल का मूल कहीं न कहीं तो है न?

आप क्यों/कैसे चूक गए?

-‘सनातन समाज की नई संहिता’ का रचनागत उद्देश्य ‘जाति व्यवस्था’ व्यवस्था का मूल तलाशना नहीं अपित्तु जातिगत ढांचे से चतुर्थ वर्ण का प्रथम तीन वर्णों में आमेलन है। इस लिए जान बूझ कर उस दल-दल की तरफ रुख नहीं किया गया।

  • चमारों, मेहतरों में कितने-कितने कैसे गोत्र हैं? हैं भी या नहीं? हैं तो टकराव की स्थिति क्या है? नहीं हैं तो क्यों नहीं?

-‘सनातन समाज’ के संदर्भ में यह प्रश्न अब निर्मूल है।

  • बौद्ध-जैन प्रादुर्भाव और हिन्दुत्व के क्षरण-पतन पर कुछ और कहना चाहिए। बौद्ध-जैन का जन्मना और विकसित होना दो कारणों से रहा होगा-(1) कतिपय सुधारों की आवश्यकता; और (2) हिन्दुत्व का विसंगत हो जाना।

-‘सनातन समाज’ के संदर्भ में यह प्रश्न अब निर्मूल है।

  • याद रहे हिन्दू ले देकर नेपाल और भारत में ही रह गए हैं, जबकि बौद्ध समूचे एशिया में हैं-और कुछ यूरोप में भी।

-हिन्दू विश्वव्यापी बनें यह ‘सनातन समाज की नई संहिता’ का उद्देश्य है।

  • पहले समाज आया या धर्म?

-पश्चिम में समाज की रचना सब से पहले स्वीकार की जाती है। हिन्दू धर्म में समाज के रचनाकर स्वयं ईश्वर हैं।

  • समाज उच्चतर है या धर्म?

-पश्चिम की मान्यतानुसार समाज में पनपे विकारों को दूर करने के उद्देश्य से ही धर्म की स्थापना की गई। हिन्दू मान्यताओं में दोनों समान कालिक हैं। 

  • धर्म पर समाज का अंकुश हो या समाज पर धर्म का अंकुश हो? किसकी हिम्मत है इस सवाल से जूझने की?

-धर्म समाज पर अंकुश रखता है। समाज में धार्मिक मूल्यों का क्षरण शाश्वत है।

  • चार आश्रम तो ठीक हैं पर सब के लिए सौ वर्ष आयु कैसे संभव होगी?

तदनुसार प्रत्येक आश्रम की अवधि बदलनी होगी।

-इसे मान लिया गया है। विषुवत रेखा दिखलाई नहीं पड़ती, अंतर्राष्ट्रीय तिथि रेखा भी नहीं देखी जा सकती, मान लिया गया है।

  • आधुनिक समय के तकाजे हैं कि;

(1) स्त्री-पुरुष दोनों काम-काजी हों और;

(2) स्त्री-पुरुष दोनों गृह-व्यवस्था व गृहस्थ कार्य आदि में भागीदारी करें। (जी हाँ, पुरुष भी झाड़ू-पोंछा और चौके-चूल्हे का हुनर सीखें)।

(3) तीसरे, समाज का प्रमुख दायित्व होना चाहिए बाल-विकास, बाल कल्याण आदि पक्षों की देख-रेख और दायित्व वहाँ। ‘असहाय’ स्त्रियों की बनिस्बत माता-पिता की लाचारी के शिकार बच्चों (लड़के-लड़कियों) की देख-भाल समग्र समाज को सशक्त करेगी। स्त्री-पुरुष की समानता की कुंजी यही है। कृपया, दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन करें।

-‘सनातन समाज’ इसे स्वीकार करता है कि वर्तमान समय में समृद्धि के लिए माता-पिता दोनों ही काम-काजी बनें और गृह कार्य का निस्तारण करें। बाल प्रतिभा विकास कार्यक्रमों के द्वारा उपेक्षा, कुपोषण के शिकार बच्चों के कल्याण को भी ‘सनातन समाज’ की प्रस्तावना में स्थान दिया जाएगा।

  • प्रस्तावना के अंतर्गत सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था: आज-कल यह-वह सब गड़बड़ है और ‘सनातन समाज’ में इस संहिता की आलेखन व अनुपालन कैसे होगा, यह कौन बताएगा?

रक्षक दल और युवा टोलियाँ विचार मात्र से बन जाएंगी? उनका गठन और वृत्ति-व्यवस्था कौन/कैसे करेगा?

ये बातें प्रशासन की हैं। इसके लिए प्रशासन कैसे व्यवस्था करे, यह बताइये तो बात बने।

-‘सनातन समाज’ ने इन बिन्दुओं को प्रस्तावना में स्वीकार किया है और आगे भी इस की संकल्पना पर चर्चा की है। रक्षक दल और युवा टोलियाँ एक प्रक्रिया के तहत ग्रामीण स्तर से निर्मित की जाएंगी, यह कार्य स्थानीय प्रचारकों, न्यायाधिपतियों इत्यादि के सहयोग से सम्पन्न होगा और निश्चितरूप से इस में वृत्ति तत्व को भी शामिल किया जाएगा।  

  • अन्न, साग-सब्ज़ी उगा नहीं पाते, इसलिए चारा भी नहीं उग पाता। दुग्धशालाएँ कहाँ से आएंगी श्रीमान ओझा?

सपनों में हर चीज़ को सही देखना अलग बात है।

-सपनों से ही ठोस कार्यों की शुरुआत भी होती है ऐसा ‘सनातन समाज’ का मानना है।

  • प्रस्तावना के अंतर्गत मनुष्य शवों की विधि सम्मत अन्त्येष्टि में : चौपायों का क्या किया जाएगा? उनका विधिवत संस्कार होगा? निश्चित वध होगा (आहार के लिए)? सुझाव दो और भिड़ के छत्ते का ताण्डव देखो।

-हिन्दू आस्था के तहत जिन पशुओं का भोजन केलिए वध किया जा सकता है उसका विधान स्मृतियों में विद्यमान है। जिन पशुओं के वध का विधान स्मृतियों में स्वीकार्य नहीं है, ‘सनातन समाज’ भी ऐसे पशुओं के वध की वर्जना करता है।

  • ‘सनातन समाज’ के लिए नई संहिता की रचना आपके लिए लुभावनी है। मगर तमाम विकासशील इकाइयों की तरह समाज भी अपना स्वरूप स्वतः बदले और आगे बढ़े तो क्या बुरा है? और तब वह ‘सनातन समाज’ से छिटक कैसे जाएगा?

बहरहाल, समाज में यह ठीक है, यह गलत है, इसमें तरमीम की ज़रूरत है, उसे खत्म करने की ज़रूरत है, ऐसे विचार आप बेखटके-बेधड़क व्यक्त कर सकते हैं। पर दोस्त, ठेकेदारी से बचो।

वर्ण व्यवस्था की चूलें हिल रही हैं, आप चार की तीन वाली थ्योरी को बहस का मुद्दा क्यों बना रहे हैं।

एक नई वर्ण व्यवस्था को पनपने का अवसर दें।

-सहस्त्रों वर्ष की प्रतीक्षा के पश्चात भी तथाकथित चतुर्थ वर्ण का स्वरूप नहीं बदला। एक पल के लिए आप भीम राव साहब अंबेडकर की पीड़ा को अपने ऊपर ले लीजिये, उस समाज की पीड़ा से संपर्क स्थापित कर लीजिये आपको स्वयं पता चल जाएगा, ज़लालत से जिया गया एक-एक पल कई सदियों से ज़्यादा लंबा होता है। जो उपेक्षा के शिकार नहीं हैं उन्हें यथावत स्थिति बहुत प्यारी और सहज लगने लगती है। कई बार परिवर्तन को शीघ्र लाने वाले कारकों की खुद से भी शुरुआत करनी पड़ती है।

‘सनातन समाज’ हमारी जागती आँखों का सपना है। जीवन का उद्देश्य है। यह हमारी सोच है कि वह कैसा हो। हम कैसे इस स्वप्न की बागडोर, इस का क्रियान्वयन किसी ऐसे व्यक्ति और संस्था के ऊपर छोड़ दें जिसने इस स्वप्न की अनुभूति केवल स्वार्थवश की हो। अपने स्वप्न के अनुरूप किसी वस्तु/संस्था का निर्माण उत्तरदायित्व के साथ जुड़ा होता है न की उसे ठेकेदारी कहेंगे।   

  • आप धर्म गुरु की तरह बात क्यों कर रहे हैं?

-विषयानुगत रह कर ही बात की जासकती है।

  • क्या आप कहना चाहते हैं कि आपका फार्म भर कर मैं (शूद्र) ब्राह्मण बन सकता हूँ। साथ ही सरकार द्वारा निम्न जाति के लाभ भी ले सकता हूँ?

-एक दम सही समझा आपने।

  • यह स्पष्ट नहीं हुआ कि ‘सनातन समाज’ में दाखिला लेने के बाद कोई श्रेष्ठतर कैसे हो जाएगा? उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा कैसे बढ़ जाएगी?

-देखिये पूर्व में जाति तोड़ने, जाति सूचक शब्द हटाने के कार्यक्रम चलाये गए। सब असफल रहे। कारण यह रहा कि जाति व्यवस्था पर आक्रमण करने वाले जाति व्यवस्था की शक्ति का अंदाज़ा लगाने में कामयाब नहीं रहे, जिसकी वजह से औंधे मुंह गिर गए। पश्चिम से पढ़ कर आए और उसी विचारधारा से ओत-प्रोत उन्होंने जाति व्यवस्था को गिरती हुई दीवार समझ लिया और अपने पूरे शारीरिक बल के साथ उस पर टूट पड़े। किन्तु यह नहीं समझ पाए कि गरीब और निस्सहाय व्यक्ति जब न्याय अथवा अन्य समस्या से पीड़ित होता है तो जाति व्यवस्था के संरक्षण में ही अपनी समस्या का निवारण अथवा सहानुभूति तलाशता है।

न्यायालय और प्रशासन को आपने भ्रष्टाचार का गढ़ बना दिया और यह सोचा कि नाम के पीछे जाति सूचक शब्द हटाते ही सब जन बराबर हो जाएंगे। ऐसा होना होता तो वर्ष 1200 ईस्वी के दौरान कबीर के वचन ‘जो तू बमणी का जाया, आन द्वार तें क्यों नहि आया’ सुनते ही पूरा हिन्दू समाज जाति प्रथा तोड़ कर बैठ जाता।

आप किसी असहाय व्यक्ति से उसकी अंतिम शक्ति भी छीन लेना चाहते हो बदले में उसे किसी सुरक्षा व्यवस्था से आश्वस्त भी नहीं करते हो। कम ही पागल मिलेंगे जो ऐसे दिमागी दिवालियेपन का शिकार बनेंगे।

‘सनातन समाज’ का गठन कर के हम उन निर्धन, असहाय और सदियों से त्रस्त समूह को उन्हीं के समान सोच रखने वाले अन्य बांधवों के साथ आमेलित कर एक वैकल्पिक वृहत्त समाज प्रदान कर रहे हैं जो आवश्यकता पड़ने पर उसके हितों की उसी प्रकार अथवा उस से भी बेहतर सुरक्षा प्रदान कर सके जितना कि उसे अपने जातिगत समूह से प्राप्त होता, जिसे वह छोड़ कर आपके पास आ रहा है।

जिस दिन ‘सनातन समाज’ इस नए समूह को ऐसी बेहतर सुरक्षा,  कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस में आर्थिक सामाजिक दोनों ही सुरक्षा शामिल है नहीं प्रदान कर पाएगा जैसी सुरक्षा उसे उसकी जाति प्रदान करती उसी दिन ‘सनातन समाज’ अपने उद्देश्य में असफल हो जाएगा।   

  • ‘सनातन समाज’ में विवाह; आपके इन विचारों से मेरा सहमत होना मुश्किल है।

समान नागरिक संहिता की गरमा-गरम चर्चा में जबकि मुसलमानों, ईसाइयों और हिंदुओं के लिए एक जैसा नागरिक कानून लागू करने की बात कही जा रही है, तब आप यह कैसी ‘संहिता’ लागू करने की बात कह रहे हैं? और इसे कानून कैसे बनवाएंगे?

आपके देश का कानून और यूनिफ़ोर्म सिविल कोड का क्या होगा?

-हमें स्वतन्त्रता प्राप्त किए लगभग सत्तर वर्ष होने को आए हैं। समान नागरिक संहिता तो संविधान के दिशा निर्देशों में भी शामिल है, सर्वोच्च न्यायालय कई-कई बार इस विषय में सरकार को जगाने की च्येष्टा करता है। वर्ष 1984 में ही ‘शाहबानो’ प्रकरण के साथ सरकार इसे दफन कर चुकी है। मैंने स्वयं ने वरिष्ठ इमाम बुखारी से साक्षात्कार लिया था, ‘मुसलमान मजहबी मामले में किसी की मदाखलत गवारा नहीं करेंगे।‘ यह उन्होंने छाती ठोंक कर कहा था। इसके बाद स्वर्गीय राजीव गांधी को आरिफ़ मुहम्मद खान को झटक कर अपने अलग करने में देर नहीं लगी थी। उसके बाद से तीन-तीन जन संख्या के सर्वेक्षण हो गए हैं अभी तक तो इस की कोई सुगबुगाहट नहीं है।

प्रजातन्त्र में सरकार अपने निर्णय कई कारकों को ध्यान में रख कर लेती है, ज़रूरी नहीं कि वह तर्कयुक्त सही निर्णय ही ले, वह वोट संख्या के गणित को हम से और आप से बेहतर समझती है।

अव्वल तो निकट भविष्य में (अगले 100 वर्षों तक) तो मैं इसे देख नहीं पा रहा हूँ किन्तु यदि आ भी गया तो इस से ‘सनातन समाज’ को चिंतित होने की क्या आवश्यकता है? समान नागरिक संहिता के प्रावधान तो तभी लागू होंगे जब कोई कार्य बिना (पति-पत्नी के) परस्पर सहमति के किया जाएगा।

‘सनातन समाज’ को समान नागरिक संहिता से कोई ख़तरा नहीं है।   

  • क्या यह पैम्फ़लेट है? या ‘सनातन समाज’ में दाखिले का प्रोस्पेक्टस?

श्री सुधेन्दु ओझा संस्थापक, परिचालक, अभिभावक, सीएमडी आदि, सनातन समग्र।

-यह बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है। ‘सनातन समाज’ की सोच, उसकी परिकल्पना, उसके सैद्धांतीकरण, रूपरेखा, विन्यास को कहीं से नकल करके तो नहीं लाया हूँ। बड़े श्रम और एकाग्रता से इस को गढ़ा है। अगर इसे नहीं स्पष्ट करता तो यह शिकायत रहती कि इसमें तो कुछ लिखा या फिर बताया ही नहीं गया, अध-कचरा है। और अब विस्तार से हर बिन्दु और उसके क्रियान्वयन की रूपरेखा रखी, तो प्रचार पैंफ्लेट या प्रोस्पेक्टस की संज्ञा। ‘जाकी रही भावना जैसी।‘

क्या करूँ ‘सनातन समाज’ को खुद ईंट-गारे से अपने हाथों तैयार करूँ या (आप की भाषा में) किसी ठेकेदार के हाथों चला जाने दूँ और अंत में माथा पकड़ कर कहूँ, कि मैंने ‘सनातन समाज’ के ये लक्ष्य तो नहीं रखे थे जो यह ठेकेदार लागू कर रहा है।   

इसका उत्तर

  • प्रस्तावना के अंतर्गत उद्योग व्यवस्था : ये बातें कोई शेख चिल्ली नहीं कर रहा तो इसके पीछे, प्रॉम्प्ट करने वाला कोई संगठन होना चाहिए। अकेले आदमी (विचारक?) के दिमाग में इतना उबाल नहीं आ सकता।

यदि विचारक अकेला है तो सलाम का हकदार ज़रूर है, मगर उसके विचारित समाज का भविष्य समझ में नहीं आता।

-आप इस क्षुद्र को वर्ष 1983 से ‘माया’ के दिनों से जानते हैं, वह भीड़ बन कर नहीं रहा, अकेला ही चला है। विचारित समाज का भविष्य शीघ्र ही समझ में आएगा।

आप सुविज्ञ पाठक हैं, मेरा अनुरोध है। हमारा रूप, गठन भिन्न-भिन्न भले ही क्यों न हो इस भिन्नता में भी हमें एकता के सूत्र तलाश ही लेने चाहिए। मैं आह्वान करता हूँ कि आप ‘सनातन समाज की नई संहिता’ के मूल आदर्श से ओत-प्रोत एक नए ‘सनातन समाज’ के गठन में तन, मन और धन से सहयोग करें। इस स्वप्न को साकार करें और समाज, धर्म से चौथे वर्ण का कलंक मिटा कर उसे तिलक सदृश्य मस्तक पर ग्रहण करें।  

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो। प्राणियों मे सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो।

 

सादर

सुधेन्दु भाई ओझा

9868108713

 

11 नवंबर, 2015 (दीपावली)

 

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