काँटों की नोंक से / कहानी संग्रह /
लेखिका - डॉ. निहारिका 'रश्मि '
प्रकाशक - रचनायन प्रकाशन , भोपाल।
आज डाॅ निहारिका ' रश्मि ' जी की कहानी संग्रह " काँटों की नोक से " की समीक्षा पढ़नी है मुझे , बात तो बेशक उनकी ही लेखनी की होगी । सातवीं कक्षा में पहली कथा लिखने वाली निहारिका जी आज लगभग पचास की उम्र में अपनी पहली कहानी संग्रह के रूप में हिंदी साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। सबसे पहले तो उनको मेरी तरफ से बहुत -बहुत बधाई इस संग्रह के लिए।
" काँटों की नोक से " इस पुस्तक के नाम में ही इतनी चुभन है तो कहानियों में कितनी होगी ? पढ़ने से पहले ही यह एहसास हो गया कि मै एक अति - विशिष्ट चीज़ पढने जा रही हूँ और पढ़ने के पश्चात मैने पाया कि अपने नाम के अनुसार , बेहद तीक्ष्ण धार लिए प्रायः सभी कहानियों नें अपना आस्तित्व कायम किया हुआ है ।
1986 से निहारिका जी , कहानी , लेख इत्यादि अन्य विधाओं के जरिये वे लगातार प्रकाशित होती रही है। इस संग्रह की कहानियां हंस , धर्मयुग ,कथा भाषा सहित अनेकोनेक प्रतिष्ठित अखबारों में अपनी जगह बना चुकी है। कई वृत्तचित्रों की निर्मात्री निहारिका जी " कबीरा डॉट. कॉम " की निर्देशक व् संचालिका के तौर पर आज भी संलग्न है। बहुमुखी प्रतिभा की धनी को आज हम बतौर पाठक , इस संग्रह के जरिये उनके लेखन की चुम्बकीय शक्ति को महसूस करेंगे।
काव्य पाठ करते हुए गोष्ठियों में आदरणीया निहारिका जी को पहले भी सुन चुकी हूँ , हालांकि सीमित समय में कुछ भाव ऐसे झलके थे उनकी रचना से , कि उनको पढ़ने के लिए ऐसा कौतुहल जागा मेरे मन में , इसको शब्दों में वर्णित नहीं कर सकती हूँ । 22 कहानी व 5 लघुकथाओं से समृद्ध इस संग्रह ने कथानक में मानों पूरा सामाजिक परिवेश को ही अपने दायरे में समेट लिया है ।
" काँटों की नोक से " में मैने उस समृद्ध लेखन को पाया है जो लिंग - भेद से परे था । लेखिका व् लेखक होने से परे , वे यहाँ सिर्फ स्त्रियों के विसंगतियों तक सीमित नहीं है , उनके कथ्य का विस्तार पुरूष -मनोविज्ञान से लेकर , समाज के हर वर्ग , हर तबके पर , सार्थकता को सिद्ध करता है । यहाँ लेखनी एक तरफ बाल -मनोविज्ञान पर बडी़ सहजता से चलती है , तो दूसरी तरफ युवाओं के मन के रहस्यमयी दरवाजे के पार भी , बडी़ सहजता से प्रवेश कर जाती है । किशोरावस्था का प्रेम से लेकर , राजनीति की गलियारे तक लेखनी उनकी बेखौफ है ।
भाषा- शैली सहज प्रवाह लिये , हर्ष - शोक व हताशा के क्षणों को ऐसे उकेरती है कि कहानी को स्वंय के अंदर जीने का बोध , यकायक जीवंत हो उठता है और यह सम्मोहन संग्रह की प्रथम कहानी " तोहफा " से ही शुरू हो उठता है । कहानी पढते हुए मन में एक ज्वार-सा उठता है । किशोरावस्था में पनपता गहरा लगाव , भावनाओं को हिलकोरता हुआ उठता है । बेहद संवेदनशील कहानी , सहज संप्रेषण , पढते हुए पात्र "अतु " के साथ स्वंय भी उस पल को जी रही थी । मामा का घर , बचपने का लगाव और बिछोह की पीड़ा को तोहफे में पाया हुआ बटन और " बटनों में उधडा हुआ धागों " ने विह्वल कर दिया । मन को उद्वेलित करती हुई पंक्तियाँ व चकित करने वाला सुखांत रोपित है यहाँ ! इस कथा को पढ़ने के बाद ही मुझे एहसास हुआ कि आगे कि कहानियों को पढते हुए मै समृद्धशाली , बेहद समृद्धशाली होने जा रही हूँ , क्योंकि सच्चे भावना से रचि गयी साहित्य सदा से विचारों को पुष्ठ और संतृप्त करती है ।
" ए गुड गर्ल " -----परिवार में , समाज में बचपन से ही गुड गर्ल बनकर जीने वाली कुमारी कुसुम कली माथुर के जीवन में समाज के दोगले चरित्र प्रहार को बखूबी दर्शाया गया है। " रातों के अंधेरे में कुमारी कुसुमकली माथुर समाज पर इसके दोगलेपन पर विचार करते हुए करवटें जरूर बदला करती है ।" मन की विचलन का संवहन इन पंक्तियों नें बहुत खूब किया है । तेरह वर्ष की लडकी और सलवार कुर्ता पहनने की बाध्यता , बचपन की उमंगों , जवानी की रवानी पर अंकुशों के साथ , सतरंगी सपनें देखने को अपराध समझ , अपनी चाहतों को ताक में रख कर , माता - पिता के अनुसार तमाम उम्र गुड गर्ल बनकर आदर्शों और मर्यादा के खोल में सिमट कर ,अपने जीवन को सार्थक करती कुवांरी , कुमारी कुसुम कली माथुर , जो शहर की प्रतिष्ठित इण्टरमीडिएट स्कूल की प्रिंसीपल है , को अधेडावस्था में , एक सामाजिक समारोह ,जहां बच्चे का नामकरण संस्कार चल रहा था ,वहाँ की औरतों का उसको घूरकर देखना ,क्यूंकि वह अब तक कुवारी थी और यह सुनना कि -" भैन जी खाँ ( को ) कोऊ नई मिली , जो भग लेती काऊ के संग " चौंकाती हुई पंक्तियाँ , चिंतन पर विवश करती है कि कितना सही था उसका गुड गर्ल बनकर रहना ? सच में ये समाज का दोगलापन ही तो है ।जबकि भाग जाने पर कुल का कलंकित होना भी इसी समाज द्वारा रोपित है । अद्भुत संप्रेषणीयता देखने को मिली है यहाँ ।" यह कैसा आदर्श ? " खोखले आदर्शों की पोल खोलती एक जबरदस्त कहानी पाठक को सम्मोहित करना आप बखूबी जानती है । " किसलिए "--यह महज़ एक कहानी ही नहीं है ,यह प्रश्न है समाज से कि किसलए ? आखिर किसलिये हम गलत बातों को मौन सहमति देते है । क्या यही वजह नहीं है गलत चीजों को पंख फैलाने के लिए अवसर देने का । गलत के लिए चाह कर भी प्रतिकार ना कर पाने का उस युवक का दर्द , इस संवाद में खूब उभर कर आया है कि " माँ , मुझे ना जाने , कहाँ का हरिश्चंद्र कहती है ? मै माँ -बाप का बेटा हूँ ,पिंकी का भाई हूँ , लेकिन वह नहीं हूँ जो मुझे होना चाहिए ' एक जिम्मेदार नागरिक '" ..... बहुत ही गहरा संदेश छुपा है इन पंक्तियों में । यह उस सोच पर प्रहार है जो समाज में नशेड़ियों की तरह ही " हर एहसास से परे " बेहोश से रहते है । यहाँ गलतियों पर पर्दा डालने की मानसिकता को एक ड्रग्स लेने वाले नशेड़ी की बेहोशी से तुलनात्मक अभिव्यंजना बहुत ही खूबसूरत हुई है । इस कहानी का शिल्प सुगठित है। "जो नर गावे " में बेटी के व्याह का दर्द और भगवान से अपेक्षा को बखूबी दर्शाया है । इक्कीसवीं सदी की पाॅलिशी का जिक्र भगवान के संदर्भ में करना कि "आजकल इस हाथ ले , उस हाथ दे " कहानी में चार चाँद लगा दिये है । व्यंग्यात्मक शैली में रचि गई ये कहानी सामाजिक धर्माचरण पर करारा प्रहार हुई है । पात्रा का ईश्वर पर आस्था का ऊहापोह का चित्रण बहुत ही गहनता से हुआ है । ईश्वर में आस्था क्या दिखावे की विषय - वस्तु है ? बेमन से या.....! यहाँ बहुत ही गम्भीर अभिव्यक्ति है । अधेड़ उम्र की कथित आधुनिक महिलाओं की खोखली मानसिकता को भी खूब उकेरा है । जो रामायण पढ़ने को , जानने को आउट ऑफ़ फैशन की तरह सोचती है। जो इसे महज़ दादियों की पुरातन संस्कृति से जोड़ती है।अपने आस पास की सामाजिक ,पारिवारिक परिस्थितियों का आकलन करते हुए अनु का ( कहानी की पात्रा , यह कथा उनकी नजर में ) यहाँ इच्छाशक्ति को ही कर्म के लिए सर्वोपरि मानने का सफल चित्रण हुआ है ।
आपकी लेखन शैली सहज , सरल व अलौकिक है । आप उन आधुनिक लेखिकाओं में शुमार है , जो गुजरे कल , आज और आने वाले कल के मानसिकता की नब्ज को पकड़ , सामाजिक नैतिक अवमूल्यन को शब्दांकित करती है । आप भावनाओं को गढना जानती है । " त्रासदी " -----भोपाल गैस त्रासदी और एक नवयुवक के जीवन पर उसका प्रभाव , बहुत ही संवेदनशील रचना है यह । शादी के लिए उसका रिश्ता कहीं तय नहीं हो पा रहा है ,क्योंकि वह गैस पीड़ित है । वह व्याह करने की लालसा रखता है । वह निरोग है , लेकिन बदनाम है गैस पीड़ित के नाम से । लड़की वाले गैस पीड़ित को अपनी लडकी देने से कतराते है , को बहुत सार्थक कथ्य कथ्य दिया है। गैस त्रासदी , जीते जी लोगों को मार गया । उस पल को जीने वाले आज तक तकलीफ़ पा रहे है। बहुत ही मार्मिक व गुंथी हुई अभिव्यक्ति दी है । यहाँ पुरूष -मानसिकता को आधार बनाकर लेखनी साकार हुई है । "अंततः" में पढी- लिखी कामकाजी लडकी और उसकी विसंगतियों को स्वाभाविक तरीके से यहाँ सम्प्रेषित किया है आपने । नारी मन के भावों के विचलन ,दोस्त - दोस्ती , अनकहे-प्रेम को अपने अंतःमन में जीती । सहकर्मी से दोस्ती और उसका देह की सीमा तक बढना , यहाँ एक व्यापक चिंतन है नारी मन के ऊपर , कि वो क्या चाहती है ? परेश से दोस्ती ना करें ! यानि पुरूष से दोस्ती, नारी को वितृष्णा की ओर ही लेकर जा पटकती है । आखिरी पंक्ति मन को विहला जाती है कि " नारी शिशु हत्या : कितनी जायज। " अपने अपने व्यूह "---- बेरोजगार युवक और तीन बहनों का भाई ,जो पिता का तिरस्कार सहता , माता की व्यवसाय से पीछा छुडाता , उसकी मनोव्यथा का ,पात्र के छोटी बहन के नजर से चित्रण हुआ है इस कथा में । बहनों के दुख - सुख का साझेदार भाई , दोस्तों के लिए जीने वाला संजीदा बेरोजगार युवक , पिता की गालियाँ खाकर भी कभी ऊफ तक नहीं करता । संवेदना का ऐसा प्रवाह कि कथा के अंत तक आते - आते मन भीग जाता है । किताब हाथ में रखे , देर तक ,उस संवेदनशील युवक को जीती रही अपने अंदर । पिता के स्नेह को तरसता युवक , जरा सा पिता के मुख से ,अपने लिए स्नेह पाकर ,आखिर में टूट जाता है और अकेले में फूट फूट कर रोता है । वहीँ "अदालत " में लडकी -जन्म को लेकर पारिवारिक व सामाजिक मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए , विसंगतियों पर यह कहानी बुनी गई है । मानसिकता पर ऐसा कटाक्ष मैने पहली बार ही पढा है कि " हमारे कस्बे में आज तक मम्मियाँ भी खो जाने के डर से सड़कों पर अकेले नहीं निकलती है " गजब है यह वाक्य-विन्यास ! परिवार और उनके रिश्तों को जिस तरह परिभाषित किया गया है यहाँ , वो सराहनीय है ।जरा-जरा सी बात में सवालों के घेरे में कसने को अदालत सी परिकल्पना , घरों में " कठघरा " और " अदालत " यह बच्चों और माता - पिता के बीच के रिश्ते का शल्य - चिकित्सा जैसा सूक्ष्म विश्लेषण लगा । इतना महीन क्षण- विशेष को प्रस्तुत करना चकित करता हैै । " आदिवासी " - आपकी अधिकतर कथायें मध्यमवर्गीय परिवार के पृष्ठभूमि पर ही रचि गई है । यही कारण है कि आपकी समस्त कहानियाँ हमारी अपनी आस - पास की ही लगती है । पढते हुए सहसा नजर अटक गई । वाह ! क्या क्या कटाक्ष यहाँ रोपित हुए है रोजगार प्रणाली पर कि " 25 वर्ष की उम्र में 5 वर्ष का कार्यानुभव व ऐसी - ऐसी शैक्षणिक योग्यता माँगते थे ...जिनके काॅलेज सिर्फ महानगरों में ही उपलब्ध है , कस्बों के काॅलेजों में नहीं " यह वाक्य रोजगार प्रणाली पर करारा प्रहार है । कस्बे में पढ़ी -लिखी बेरोजगार -पात्रा , शादी के पश्चात शहर में रहने के दौरान , जब दफ्तर में वहाँ की कार्यप्रणाली देखने की उत्सुकता में , अपने पडोसी जो वहां कर्मचारी है , के साथ जाती है तो चकित हो उठती है । वहां यह संवाद सुनना कर्मचारियों के मुख से कि यहाँ " काम करने वाले ही फँसते है " एक दुषित मानसिकता से उसका परिचय करवाता है ,जो दफ्तरी माहौल की अकर्मण्यता को रोपित करता है । एक अयोग्य को माथे का चंदन और पढे लिखे योग्य बेरोजगारी सिर्फ कौतूहल का विषय ? सोचते हुए पात्रा स्मार्ट अकर्मण्य सरकारी कर्मचारियों के आगे ( गैर जिम्मेदाराना स्मार्टनेस ) योग्य शैक्षणिक बेरोजगार स्वंय को सलीके से रहने और सिंद्धांत वादी होने के कारण , कहीं आदिवासी ना करार कर दी जाये , के भय से अचानक ग्रसित हो उठती है तो यहाँ कहानी का सौंदर्य द्विगुणित हो उठती है ।
" दीपा क्यों रोई ? " इस कहानी का विषय बेटी जन्म की विसंगतियों से शुरू होती है । दीपा शादी के साल भर बाद ही माँ बनी । वो भी बेटी की ! बेटी की माँ बनने से ससुराल में बेटियों की साख नहीं बनती है । ससुराल में साख बनाने के लिए बहूओं को बेटा जनना ही चाहिए । इस कहानी ने अपने अंदर व्यापक स्त्री विमर्श को समेटा हुआ है ।स्कूल के दिनों में दीपा को माता- पिता व दीदी के द्वारा उच्च शिक्षा का ख्वाब दिखाया जाता है ताकि वह पढ़ने में मन लगाए । जब होनहार दीपा उच्च शिक्षा के लिए शहर के सबसे अच्छे प्रतिष्ठान में चयनित होती है तो अचानक अनेक सवाल अदबदा कर निकल पडते है । लडकी को अकेले कैसे , कहाँ , नहीं ,नहीं ... अकेली लडकी बाहर शहर में कैसे रहने जायेगी ! ऐसे वक़्त में रिश्तेदार भी पराई लडकी की जिम्मेदारी लेने से कतरा उठे । एक उड़ान को तरसती , योग्य लडकी , कस्बे में बी. ए. की डिग्री लेकर शादी करके माँ बना दी जाती है । वो भी लडकी की ! अपने ख्वाहिशों के लिए दीपा आवाज उठाती हुई और फिर थक -हार कर परिवार के सामने , झुकती - नमती हुई , आखिरी में कहानी में प्रयुक्त इस वाक्य ", वह धीमी आवाज में बोलना और नीची नजर रखना सीख गई " ने सीधे हृदय पर तीखी तीर चुभाई है । कहानी पढते हुए अपने परिवार, मोहल्ले , पडोस की कई दीपायें नजरों में तैर गई । देखा था उनको भी , ऐसे ही ,एक उड़ान की ललक में , उनके कतरे हुए पंखों को । कहानी दिल को कचोट जाती है । अल्हड़ मस्त दीपा जो दोस्तों के संग बिंदास जीती थी अपनी बेटी के पैदा होने पर रोती है ।"प्रेम मर गया , प्रेम अमर रहे" युवाओं की टोली और उनकी सोच को बहुत ही सुंदर उकेरा है । दोस्ती में कैसे प्रेम का हठात् पनपना और हताशा के क्षण का रोपण । युवाओं के मन की उलझन पर लेखिका ने अपनी पूरी पकड़ बनाई है । "अब कहाँ बाल्मिकी" में येनकेन प्रकारेण अमीर बनने की कहानी है । गरीबी से तंग आ ,अमीर बनने के लिए जूझता युवा वर्ग का एक दुखद चित्रण है यहाँ । घरेलू गैस की काला बाजारी कर बहुत सारा धन कमाने का इच्छुक , भुवन के रूप में एक संजीदा धैर्यवान , गुणवान युवा को स्थापित कर , उसके भटकाव का चित्रण बहुत ही शानदार हुआ है । लेखिका का उद्देश्य पाठक के मन को आन्दोलित करने में सफल दिखाई दिया है यहां कहानी में । " ज्ञानू भी आयेगा " युवा मन में दोस्ती के रिश्ते में संवेदनाओं की अभिव्यक्ति बहुत ही उम्दा हुई है । दोस्तों का बिना कहे अचानक गायब हो जाना , मिलने ना आना , अकारण ही । टूटती आस , दोस्त से बिछोह से भावुक होता हुआ , डूबता - उगता मन , कभी कह ही उठता है कि " ये पथरीला शहर ही ऐसा है ,निष्ठुरों की फसल उगाता है । " यहाँ इस निष्ठुरता की अभिव्यक्ति मन को विहला जाती है । एक दूसरे पर विश्वास की पराकाष्ठा का ऐसा शब्दांकन कि दोस्त के अचानक गायब हो जाने को भी मन यह कहकर सान्त्वना देता है कि जैसे नीरू आई है आज , अर्थात नीरू का लौटना एक आशा ,एक गहरा विश्वास रोपित करता है यहाँ कि एक दिन ज्ञानू भी आयेगा , शायद महीनों बाद , शायद बरसों बाद , ज्ञानू आयेगा जरूर । " तो शुक्ला जी क्या करें ?" इस कहानी में पुरूषों की बेरोजगारी तो सदा से कहानियों में रेखांकित की गई है लेकिन यहाँ आज के संदर्भ में महिलाओं की बेरोजगारी को मुद्दा बनाया गया है और सबसे बडी बात है कि गर्भवती बेरोजगार पत्नी अच्छी नौकरी की चाह में जूझती है अपने ख्वाहिशों के भटकाव के साथ । पति- पत्नी के स्वाभाविक और गहरा प्रेम के मध्य आर्थिक तंगी की कचोट ने बाध्य किया है उसे पी एच डी करने पर । यह कहानी आज की पढी़ लिखी पत्नी की कहानी है जो अपने पति को घर चलाने में आर्थिक सहयोग देकर, साथ चल सहचरी बनने की ख्वाहिश रखती है ।
" कस्तुरी " में स्त्री मन में दबी हुई एक विलक्षण लेखिका जिसे गृहस्थी के बोझ नें आकांक्षाओं को तिरोहित करने के लिए बाध्य , एक मानसिक द्वंद्व को बहुत बारीकी से मैग्नीफाई किया गया है । गृहस्थ के रूप में उसके गुणों को पति व परिवार द्वारा अनदेखा करने पर वह अंततः उठ खड़ी होती है स्वंय के निर्माण के लिए । स्वंय के निर्माण में बच्चे का मासूम मुख , उसकी चंचल ,चपल बचपन को अपने से दूर कर , हिरण की भाँति कस्तुरी की तलाश में रात को बिस्तर पर , अकेले में उस माँ की तडपन भी खूब आख्यादित हुई है । कुछ पाने के लिए कुछ खोने को यथार्थ की परिपाटी पर बुना गया अद्भुत दृश्यांकन है । इस कहानी की संप्रेषणियता सच में देखते ही बनती है । पात्रा के मन में ग्लानि , क्षोभ , त्याग और त्याज्य की पीड़ा , पाठक के मन को भेद जाती है । आज के कामकाजी महिलाओं के परिवेश में यहाँ भी चिंतन को एक नया आयाम मिलता है। "मालकिन "अकूत सम्पत्ति की मालकिन , कितनी मिल्कियत को जीती है अपने अंदर ,खूब मुखरित हुई है । स्त्री , उसके दायित्वों की पीड़ा । जेल की जिंदगी को नजदीकी से जानने ,भोगने वाली इस मालकिन ने बिना कसूर कितनी विसंगतियों को जिया है । इस कथा ने सामाजिक विसंगतियों को व्यापक रूप से अपने कथ्य में समेटा है । धन - सम्पत्ति से परिपूर्ण वह मालकिन कितनी धनी थी अपने अंतरआत्मा से , को खूब व्याख्यादित हुई है । " ' ग ' से गाँधी ' ग ' से गोली " बदमाश बच्चे द्वारा अपने बच्चे का बार - बार पिट कर आने के बाद भी प्रतिकार के लिए ना कहना । अच्छा बच्चा बनाने की माँ की चाहत , लेकिन बार बार इस आदर्श की शिक्षा के ध्वज तले अपने बेटे का पिटने से त्रस्त हो आखिर वह एकदिन प्रतिकार करने के लिए कह उठती है , यहाँ एक अजब सी स्थिति बनी है कहानी के वातावरण पर । बालमनोविज्ञान पर लेखिका की पकड़ यहाँ साबित करती है कि वो मन को बांधने में सिद्धहस्त है ।
" एक थे / एक है" भ्रष्टाचार के खिलाफ़ एक अकेला सद्बुद्धि हाल - बेहाल हो उठता है । पढ़ा लिखा सद्बुद्धि अपने सद गुणों के कारण ही त्रस्त - त्रस्त हो व्यवस्था का अंग बनने को मजबूर , मौत से बदतर जिंदगी को अपनाने की सोच रोपित हो उठती है । यह कहानी भ्रष्ट सरकारी तन्त्र पर प्रहार है ।" शंखनाद " एक विशुद्ध प्रेम कहानी है । प्रेम को पाने के लिए अपने परिवार से संग्राम और उनके साजिशों के आगे पस्त होती प्रेम कहानी का चित्रण बहुत ही मार्मिकता लिये हुई है । बहुत व्यापक चिंतन दिया है इस कहानी ने आज के परिदृश्य में युवाओं के प्रेम को , अपनी मर्जी से साथी चुनने को , क्यों शंकित नजर से हमेशा देखा जाता है ? " अम्मा की तेरहवीं " यह एक जबरदस्त कटाक्ष है तेरहवीं प्रक्रिया में दिखावे की रस्मों रिवाजों पर । दोहरे चेहरे , नाटकीय माहौल सब हमारे आस - पास के ही है । यहाँ अग्नि - संस्कार में शामिल होने के लिए भी कुछ ना कुछ स्वार्थ तलाशते है । हैसियत का दिखावा के लिए भी तो ऐसे आयोजन बेहद मायने रखते है ।
" उत्तराधिकारी की खोज " इस कहानी संग्रह की आखिरी कहानी । इस व्यंग्यात्मक कहानी ने अपने अंदर कटाक्षों की इतनी सूक्ष्म और पैनी तीखी चुभन स्थापित की है जो अकल्पनीय है । बाबूलाल जो तुच्छ सा अदना सा आदमी जो एक कथरी और पिचके हुए उस एल्यूमीनियम के कटोरे का स्वामी था । बात - बात में राजनीतिक व सिद्धांतिक भाषणों से , इलाके को आंदोलित करने वाला , ऐसी वैचारिक सम्पन्नता दिखा कर मर गया कि उसके बिना जनता स्वंय को बेजूबान महसूस करने लगी । प्रतीक स्वरूप यहाँ आपने गाँधी जी की प्रतिमा के जरिए भी कहानी में कटाक्षो के खूब बाण चलाये है । बाबूलाल के जरिए आपने देश की व्यवस्था पर बहुत तेज तमाचा मारा है । " बाबूलाल में गांधी जी की आत्मा बसती थी " . इस वाक्य ने अपने अंदर कथ्य की सघनता को अपने अंदर समेत रखा है। उत्तराधिकारी की खोज में बेहाल जनता के जरिए कई विसंगतियों को उकेरा है आपने यहाँ भी । यह कहानी सुप्त-संचेतना को जागृत करने की अद्भुत क्षमता रखती है ।
आपकी इस कहानी संग्रह में पाँच लघुकथाओं ने भी अपना स्थान बडी़ ही सूक्ष्म मनोविश्लेषण के साथ कायम है जो मुझे हर्षातिरेक में डूबो गया , क्योंकि मै लघुकथा- विधा को लेकर बेहद संवेदनशील हूँ । मैने गद्य की इस विधा के साथ साहित्यकारों का सौतेला व्यवहार देखा है । लोग उपन्यासकार , कहानीकार तो होना चाहते है लेकिन लघुकथाकार नहीं होना चाहते है । यह विधा के प्रति नैराश्य-भाव बहुत तकलीफ़ देह है । इस विधा को संजीदगी से ना लेने के कारण ही अब तक बडे़-बडे कथाकार भी लघुकथा- लेखन में तकनीकी गलतियाँ प्रचुरता से कर बैठते है, क्योंकि मैने पाया है कि लघुकथा लेखन के लिए पैनी दृष्टि का होना बेहद जरूरी है , इसके लेखन से पहले मानकों का ,तकनीकों को, साधना बेहद जरूरी है ।
आपकी पाँचो लघुकथाएं तकनीकी दृष्टिकोण से बेहद सशक्त है।आप क्षण -विशेष को भी बड़ी कुशलता से सम्प्रेषित करती है। पहली कथा "सूखा " ने संवेदनाओं को खूब झकझोरा है । गरीबी का चिपके होने से मन में अपराध - बोध का कायम होना दिल पर चोट करती है । सोचने पर मजबूर करती है यह कथा कि क्यों किसी गरीब को अपने पास की कुर्सी पर बैठने का सम्मान नहीं मिलना चाहिए ? क्या सच में हमारी संवेदनायें सूखती जा रही है ! अद्भुत संप्रेषण ! आपकी दुसरी लघुकथा "लप्पो " एक आवारा पिल्ले के प्रति प्रेम, लगाव का रोपण और अचानक किसी गाड़ी के नीचे उसकी मौत हो जाना , लप्पो के लिए मन में नीरवता का प्रवेश , एक सन्नाटा उसके बिना , बेहद तीक्ष्ण क्षण विशेष रोपित हुआ है यहाँ भी । तीसरी लघुकथा " इंसान बनेगा " ने मुग्ध कर दिया । गजब का शिल्प और सौंदर्यबोध ! इस कथा ने कटाक्ष के साथ कथ्य को ऐसा रोपित किया है कि मन को आंदोलित कर इसने अपने सृजन का उद्देश्य पूरा किया है । बालमन पर पिता के हत्या का दुष्प्रभाव का ऐसा चित्रांकन , मै हतप्रभ हूँ इस लेखन कौशल से ।चौथी लघुकथा " दस्तक " में उस आदमी को लोटा सहित पानी देने के बाद इंसानी शक्की प्रवृत्ति , कि कहीं वह लोटा लेकर भाग गया तो , ने जहाँ सोच की संकीर्णता को दर्शाया है वहीं पानी लेकर गये उस आदमी का एक लाचार प्यासे को पानी पिलाने का संदेश के साथ ही बेहतरीन पंच का प्रभाव रोपित हुआ है पाँचवीं लघुकथा " मिन्नी ! कहाँ गई ? " एक नन्हीं सी मासूम की कहानी है जिसकी दुनिया रेत के ढेर में से चुनी गई शंख ,सीपियों , रंगीन रैपर और चिकने पत्थरों के संग्रह में ही सीमित है । पिता अपने जीवन की आपा- धापी में मग्न , बेपरवाह अपनी ही बच्ची की इस अनोखे सपनीली दुनिया से , सब बिखर देते है जमीन पर महज़ कुछ रेतीले वस्तुओं को निर्रथक समझ कर । टूटता है सपनों का संसार जब नन्हीं सी मिन्नी की आँखों में तो अपने आँसुओं में लाईट की झिलमिलाती सितारों में खो जाती है और वही सितारे वह अपनी मम्मी के आँखों में भी महसूस करती है । एक महीन सी मनोविज्ञान को यहाँ बेहद सूक्ष्मता से आपने पकड़ा है । बेहतरीन लघुकथा है यह भी आपकी ।
इस कहानी संग्रह को समाप्त करते हुए मुझमें कुछ और कहानियों को पढ़ने , यानि डॉ निहारिका जी को और पढ़ने की लिप्सा जाग उठी । अक्सर ऐसा होता है कि किसी किताब को पढते हुए हम आखिरी पन्ने तक आने में जल्दी से जल्दी खत्म करने के लिए सोचते है , लेकिन यहाँ उल्टा हुआ । लगा कि बस ! इतना ही ! जाने और कितनी दीपायें , बाबूलाल , ज्ञानू , नीरू , लप्पो को पढना था । यह था इस कहानी संग्रह का सम्मोहन । कहानी की भाषा सरल , सुबोध व अपने उद्देश्यों को सफल करती है । कई जगहों पर अंग्रेजी शब्दों का उपयोग भी इतनी सहजता से हुई है कि वह भी हिन्दी की अंगों में शामिल हो उठी है । भाषा शैली सहज प्रवाह लिये हर्ष - शोक व हताशा के क्षणों को ऐसे उकेरती है कि कहानी को स्वंय में जीने का बोध होता है ।
साहित्य की परिभाषा को सार्थक करती हुई यह कहानी संग्रह " काँटों की नोक से " सचमुच में समस्त जीवन की आलोचना सिद्ध हुई है ।कहीं रस - प्रेम की तृप्ति , तो कहीं मनोरंजन और कई जगह नयी शब्द - योजना भी कहानी में आभाषित हुई है । निराशा , वेदनाओं की विविध अवस्थाओं का ऐसा चित्रांकन कि कई बार जैसे दिल की गति बढ़ गई व थम सी भी गई । यानि मारक क्षमता से पूर्ण है सभी कहानियाँ ।जैसा कि कहा गया है कि साहित्य अपने काल का प्रतिबिंब होता है ,इस संग्रह ने इस बात को भी सार्थक किया है । भाव और विचारों का स्पंदन हृदय को आँदोलित व उद्वेलित करता है ।
मानसिक गिरावट को दिखाते हुए कई कहानियों ने मानव - मन पर बखूबी चोट की है । जीवन के मर्म को चोटिल भी किया है .इन कहानियों से पाठक सच्चे संकल्प और कठिनाई पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है । प्रायः सभी कहानी वास्तविक सामाजिक परिस्थितियों का सहज चित्रण करती है । सामाजिक विसंगतियों व वेदना को समझ उससे उत्पन्न बेचैनी का आभास होता है । साहित्य का आधार भावों का सौंदर्य है । साहित्य का आधार जीवन है और इसी की नींव पर लेखिका नें अपनी कहानियों की अटारियाँ , मीनारें व कथ्य की गुंबदें बनाई है ।
श्रीमती कान्ता राॅय ,
एफ -२, वी-५,
विनायक होम्स, मयूर विहार ,
अशोका गार्डन , भोपाल 462023,
मो .9575465147,
roy.kanta69@gmail.com
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