दिनांक: १२.०२.२०१६
कृति “छंद माला के काव्य-सौष्ठव” की पाठकीय समीक्षा
प्रकृति, अध्यात्म और जीवन से जुड़ी समाजोपयोगी काव्यकृति
वस्तुत: गेय पदों में शास्त्रीय संगीत के विधान को काव्य की समकक्षता प्राप्त है. काव्य में रचना के भावपक्ष और अंत: सौंदर्य का अधिक बोध होता है. काव्य की यह प्रकृति जब समाजिक सरोकार को आत्मसात करती है तो वह समाजोपयोगी सिद्ध होती है. अधिकांश समसामयिक रचनाकार ‘स्वान्त: सुखाय’ ही रचनाकर्म करते हैं जो कि काव्य की प्रकृति से अनभिज्ञ रहते हैं. उल्लेखनीय है कि ऐसे साहित्यिक परिवेश में युवा और उत्साही कवि श्री केवल प्रसाद ‘सत्यम’ की पुस्तक ‘छंद माला के काव्य-सौष्ठव’ एक अनूठी काव्य कृति है जो ‘स्वान्त: सुखाय’ न होकर पूर्णत: समाजोपयोगी है तथा प्रकृति, अध्यात्म और जीवन की त्रिवेणी का प्रतिरूप ही है.
ध्यातव्य है कि कुल ११२ पृष्ठ की इस काव्यकृति में ‘सत्यम’ जी द्वारा हिंदी- काव्य की कुछ प्रचलित विधाओं के साथ ही महत्वपूर्ण प्रमुख छंदों का प्रयोग किया गया है, यथा— दोहा, दुर्मिल और किरीट सवैया, डमरू घनाक्षरी, दोधक, अनंगशेखर, द्रुतमध्या, गीतिका, हरिगीतिका, वैभव, चौपाई, कुण्डलिया, आल्हा आदि. सर्वाधिक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि रचनाकार ने पुस्तक में प्रस्तुत छंदो के विधान और उनके लेखन कला पर भी सम्यक प्रकाश डालने का सफल प्रयास किया है जो नवोदित रचनाकारों के लिये अत्यंत उपयोगी है. मेरी दृष्टि में इस अनूठी पहल का सर्वत्र स्वागत होना चाहिये.
कृतिकार ने अपनी रचनाओं में प्रकृति, अध्यात्म और जीवन के विविध पक्षों/ विषयों को काव्य का आधार बनाया है. आधुनिकता की चकाचौंध में अपने स्वर्णिम अतीत और लोक जीवन के विलोपन का खाका खींचता यह दोहा बहुत कुछ व्यक्त करता है और अतिविलक्षण भी है.....
“बलई बुधई रामधन, बैठ टीन की छांव.
मोबाइल पर देखते, छप्पर नीम अलाव.”
इसी परिप्रेक्ष्य में निम्न दोहा भी अत्यंत प्रासंगिक और रेखांकन करने योग्य है..
“हाथी घोड़े गुम हुये, नहीं उड़े खग आज.
गुड़िया-बबुआ ढूंढते, बचपन के सब राज.”
आज समाज की स्थितियां विपरीत हैं. मनुष्य प्लास्टिक के गुलदस्तों में प्राकृतिक सुगंध की तलाश कर रहा है. दुनियादारी के चक्कर में वह अपना अस्तित्व खो चुका है. कवि का यह चिंतन सर्वथा उचित एवं विचारणीय ही है..
“दुनियादारी रेत सी, उड़कर करती घात.
गिरकर भी ठहरी जहां, किरकिर करती बात.”
नशा, स्वच्छ समाज के विनाश व विकृतियों का मूल ही है. अत: नशे से सावधान रहने की प्रेरणा देता अग्रलिखित दोहा दृष्टव्य है...
“ नैया तन मझधार में, नशा भंवर तूफान.
संयम नाविक साध कर, करें सुरक्षित प्राण.”
कवि का शृंगार पक्ष भी अत्यंत प्रबल एवं प्रभावकारी है. कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कवि सत्यम शृंगार के मामले में कहीं-कहीं ‘बिहारी’ के समकक्ष खड़े नज़र आते हैं... यथा-
“सावधान बिंदी करे, नयना रखे कटार.
झुमके कानों में कहें, गले पड़े हैं हार.”
सत्यम जी ने इस पुस्तक में अनेक वृक्षों एवं जड़ी बूटियों के संरक्षण व उपयोगिता को ध्यान में रखते हुये आयुर्वेदिक औषधियों का वर्णन भी अपने काव्य-संग्रह में किया है. जिनके अनुकरण से विकट रोगों से सहज ही मुक्ति पायी जा सकती है. जैसे....
“पका पपीता नर्म हो, कच्चा फल भी मर्म.
पत्तों के रस से बढ़े, प्लेटलेट्स का धर्म.1
नीम वृक्ष को पूजकर, शीतल छवि पहचान.
पत्र पुष्प फल छाल जड़, बीज तेल वरदान.2
पालक बथुवा साग का, सिंका पराठा चाप.
सेहत अतिउत्तम रहे, लौह तत्व गुण जाप,3”
कवि रहीम जी के नीतिपरक दोहों की पृष्ठभूमि भी सत्यम के काव्य में कहीं-कहीं उद्घाटित हुई है जो काव्य के निकष का स्पर्श करती है....
“पानी जैसा होइए, कोरा रंग लुभाय.
जाति धर्म कुल वर्ण में. बिन पानी शर्माय.”
कवि का राजनीतिक चिंतन भी बड़ा प्रबल है जो वर्तमान राजनीति के कलुषित चेहरे को आईना दिखाता है.....
“राजनीति के खेल में, संशय की हर गोट.
अपना ही मुहरा स्वयम, करे हृदय पर चोट.”
कुल मिलाकर कवि केवल प्रसाद ‘सत्यम’ की यह कृति काव्य-सौष्ठव के निकष पर प्रमाणिक और सफल तो है ही, साथ ही साथ समाजोपयोगी भी है. इस पुस्तक का उद्देश्य कवि के इस दोहे से स्वत: परिलक्षित होता है...
“ जीवन का उद्देश्य हो, हर पल रहें प्रसन्न.
मृत्यु काल के घाट पर, नहीं पूंछती प्रश्न.”
समीक्षक.........डा० अशोक अज्ञानी
संस्थापक/अध्यक्ष लोकायन, लखनऊ एवं
हिंदी - प्रवक्ता
राजकीय हुसैनाबाद इंटर कालेज, लखनऊ
मोबाइल संख्या- ९४५४०८२१८१
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