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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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दिन तो गुज़र जाता है लेकिन यादों का उसकी,
" शाम ढले इस सूने घर मैं मेला लगता है "
क़ुरब के लम्हे भूल गए हम वक़्त की ठोकर से,
अपना रोशन माजी भी अब सपना लगता है.
waah waah kya baat kahi hai... bahut bahut badhai.. mamnoon sahab..
ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के सदस्य आदरणीय श्री महेंद्र आर्य की ग़ज़ल .....
ख़ूबसूरत ग़ज़ल और मक़्ता बेहतरीन लगा मुझे ,
आदरणीय महेन्द्र आर्य जी को मुबारकबाद ओ,बी,ओ, में
दीद देने के लिये आभार।
महेंद्र साहिब, बेहद नाजुकता के साथ सारे शे'र कहे है आपने ,
गिरह का शे'र तो झुक कर सलाम कराता है , दाद कुबूल करे |
कैसी स्याह रात गयी अब सवेरा लगता है,
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है.
मेरी कफ़स के बाहर से मुझको रोज़ चिढाता है,
ये कोई दानिश्मंद नहीं यूँ ही आवारा लगता है.
दाना नहीं ये ज़जीरें हैं, ओ नादान परिंदे जान ले,
परवाज़ में मुड़ के देखे ये अंदाज़ सुहाना लगता है.
कपड़ों की तरह बदलता है अब अपने लवा-यकीन,
सैय्याद अपने इरादों पे अब इतराता लगता है.
वो चमकता एक सितारा अचानक गुम हुआ,
गुमशुदगी का ये वही मसला पुराना लगता है.
क़ासिद वही क़ाग़ज़ भी और पैग़ाम भी वही,
हाक़िम तेरे हर्बों का हर जाल स्याना लगता है.
आदिल नही वो क़ातिल है, "शम्स" कह रहा कब से,
वो हमसफ़र, हमक़दम था अब क्यों बेगाना लगता है.
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