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संजय भाई मेरा इशारा हिंदी उर्दू से नहीं था, मैं कहना यह चाह रहा था कि ग़ज़ल के नियमों के अनुसार मतला से ही काफिया तय होता है जो पूरी ग़ज़ल मे निभाया जाता है, जब मतले मे "दस्तकारी" के साथ "देनदारी" लिया गया है तो स्पष्ट रूप से "आरी" काफिया स्वतः तय हो जाता है |
गनेश भाई मैं हिन्दी और उर्दू की बात आप को समझाने के लिये कर रहा था
"दस्त्कारी" अगर तरही का काफ़िया है तो 2122 या 122 या 22 य 2 के संयोजन में कोई भी
व्यन्जन, अन्तिम दीर्घ मात्रा "ई" के साथ लगकर काफ़िया का निर्वाह कर सकता है यह पूर्ण रूप से नियम बद्ध है "। जो ग़ज़ल कार इसको ज़ेहन में नहीं रखता वो भी कई जगह इसका इस्तेमाल करता है शायद आप भी । इन उधाहरणों पर ध्यान दीजिये बात समझ में आ जायेगी। " दोस्ती" गर काफ़िया हो तो और मिलते जुलते काफ़ियात उपयोग में लाये जाते हैं , "दुश्मनी", "बेबसी" "बेख़ुदी""शायरी" "ज़िन्दगी" , "ख़ुशी"। गर "वफ़ा" काफ़िया तो और काफ़ियात होंगे "दुआ" "ख़ुदा""सिला" "अदा" "रज़ा" इन सब में भी वही बात है "दोस्ती" के सभी साथी काफ़ियात सिर्फ़ "ई" से एक हैं वरना व्यन्जन सबमे अलग है।, "वफ़ा" के सभी साथी कफ़ियात सिर्फ़"आ" से एक हैं वरना व्यन्जन सबमें जुदा हैं, अर्थाथ जहां vowel अलग से लगा है "आ" "ई" "ये" "ऊ" वहां vowel ही काफ़ियों का निर्वाह करते हैं । बस मतला में उला मिसरा और सानी मिसरा के काफ़ियों के संयोजन में कुछ बंधन है , जिनके बारे में फिर कभी।
अभी तक न देखी थी अब देख पाया.
सबसे जुदा है ये दानी मुहब्बत..
पूरी कभी जो हुई है न होगी.
ऐसी ही है एक कहानी मुहब्बत.
आपको सत्प्रयास हेतु बधाई.
श्री गणेश बागी जी और आपके दरम्यान काफिया-रदीफ़ से मुताल्लिक गुफ्तगू मैंने बड़े गौर से देखी ! इस से पहले कि मैं कुछ कहूँ, बड़े अदब-ओ-ख़ुलूस के साथ अर्ज़ करना चाहूँगा कि मैं कोई इल्म-ए-अरूज़ का मीर नही महज़ एक अदना सा विद्यार्थी हूँ और आप जैसी नामवर शख्सियतों से सीखने की कोशिश कर रहा हूँ !
जहाँ तक आपकी ग़ज़ल में काफिए का सवाल है तो आप ने मतले में "दस्तकारी" और "देनदारी" लेकर ऐलान कर दिया कि काफ़िये का "हर्फ़-ए-रवी" व्यंजन "र" है ! और जहां तक मेरी जानकारी है कि एक दफा हर्फ़-ए-रवी का ऐलान करने के बाद उस में किसी प्रकार की तरमीम को जायज़ नहीं माना जाता ! हालाकि इल्म-ए-अरूज़ के इस असूल के खिलाफ दलायल का अम्बार लगाया जा सकता है, लेकिन मीर लोगों का ख्याल है कि इन बुनियादी असूलों को दरकिनार करने से कलाम अपनी खूबसूरती खो बैठता है ! इस लिए आपकी ग़ज़ल में "ब्रितानी", "अव्वली" और "दानी", जहाँ कि हर्फ़-ए-रवी बदल दिया गया है - मुझे बड़ा अटपटा सा लग रहा है ! सादर !
आदरणीय योगराज जी आप जो बात कह रहे हैं उसे मतला में निभाना ज़रूरी है ,
बाक़ी अन्तरों के लिये मैंने जो तर्क दिया है ख़ासकर उदहारण पढेंगे तो आपको लगेगा जो
बात मैं कह रहा हूं वो सब आप कुछ काफ़ियों के साथ इक ज़माने से कर ही रहे हैं । मैं जो बात कह रहा हूं
बिल्कुल स्थापित नियम है। मैं कोई लिबर्टी लेने की कोशिश नहीं कर रहां हूं , मैंने शायद ये काफ़ियात भी इसीलिये उपयोग में लाया है कि कुछ लोग इसमें आपत्ति करें तो उन्हें वो चीज़ समझाने की कोशिश करू जो शायद उनके ज़ेहन में नहीं है। धन्यवाद।
आदरणीय संजय दानी साहब , खूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई|
मतले में प्रयुक्त काफिये है
दस्तकारी=दस्तकार+ई
देनदारी= देनदार+ई
अगर इसे उर्दू लिपि के अनुसार भी देखें तो तो "ई" रदीफ़ का हिस्सा बन रहा है इसलिए यहाँ पर ईता का दोष है| और जहा तक नीचे के शेरो में काफिये का प्रश्न है "मतले के कानून" की नज़र में वह भी सही नहीं है|
अगर मैं गलत हूँ तो मुझे ज़रूर आगाह करें|
बहुत बहुत आभार|
आदरणीय राना जी "ई " रदीफ़" नहीं" मुहब्बत" रदीफ़ है, "ई" तो काफ़िया है जो हर कफ़िये में ज़रूरी है। मतले में या तो " ई" के पहले "र" ज़रूरी है या ऐसा कोई भी बढाया शब्द जो ई के हटाने से निरर्थक लगे लाया जा सकता है , बाक़ी अन्तरों में "ई" किसी भी व्यनजन के साथ आकर काफ़िये का मुकम्मल निर्वाह करने का माद्दा रखती है।
धन्यवाद।
धन्यवाद भाई वीरेंदर जी,
बागी को इसने घरेलू बनाया.
जादू की है क्या पिटारी मुहब्बत?.
सशक्त रचना हेतु बधाई.
प्रणाम आचार्य जी, आपके आशीर्वाद की आवश्यकता सदैव है, बहुत बहुत धन्यवाद, हौसलाफजाई हेतु |
बने हमसफ़र अजनबी दो ज़मीं पर, ख़ुदा की है ये'',,,,,
बहुत सुन्दर , क्या रवानी है, सुन्दर ख़्यलात। मुबारकबाद।
बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय संजय दानी साहब,
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