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OBO लाइव तरही मुशायरा-4 (Now Close)

आत्मीय स्वजन,
मुशायरे ३ की अपार सफलता के बाद एक बार फिर से नई उर्जा के साथ अगले मुशायरे के लिए नया मिसरा लेकर हाज़िर हूँ|

चाहा तो था कि इस बार कोई नया मिसरा तरही के लिए रखूँ, पर आज कल के दौरे हालात को देखते हुए इस मिसरे के अलावा किसी मिसरे पर दिल और दिमाग में सहमति नही बनी| अंततः दिल के हाथों दिमाग गिरफ्त होकर इस मिसरे पर ही जा अटका| और तो और जब वज्न निकालने लगा तो एक बड़ी प्यारी सी बात भी पता चली कि जिस प्रकार से ऊपर वाले में कोई भी भेद नही है उसी प्रकार से "मन्दिर" और "मस्जिद" में भी कोई भेद नही है अर्थात दोनों का वज्न सामान है, है ना खास बात?


तो यह बता दूं कि इस बार का मिसरा पंजाब के मरहूम शायर जनाब सुदर्शन फाकिर जी की एक मशहूर ग़ज़ल से लिया गया है| अस्सी के दशक में जगजीत सिंह की आवाज़ से सजी आपकी कई गज़लें मशहूर हुई "वो कागज की कश्ती" इन्ही कृति थी|

"फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दिर क्यूँ है"
२१२२ ११२२ ११२२ २२
फाएलातुन फएलातुन फएलातुन फालुन

रद्दीफ़: "क्यूँ है"

इतना अवश्य ध्यान रखें कि यह मिसरा पूरी ग़ज़ल में कहीं न कही ( मिसरा ए सानी या मिसरा ए ऊला में) ज़रूर आये|
मुशायरे की शुरुवात अगले महीने की पहली तारीख से की जाएगी| एडमिन टीम से निवेदन है कि रोचकता को बनाये रखने के लिए फ़िलहाल कमेन्ट बॉक्स बंद कर दे जिसे ०१/१०/१० लगते ही खोला जाय| मुशायरे का समापन ०३/१०/१० को किया जायेगा|

विशेष : जो फ़नकार किसी कारण लाइव तरही मुशायरा-3 में शिरकत नही कर पाए हैं
उनसे अनुरोध है कि वह अपना बहूमुल्य समय निकालकर लाइव तरही मुशायरे-4 की रौनक बढाएं|

चलते चलते: बहर पकड़ने के लिए कुछ उदहारण छोड़े जा रहा हूँ|




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adarneey!

rachna apke man bhaee to meree klm dhanya huee.
ghajal to aapne bahut khub kahi hai..per thore shabdo mein badlaab aa jaaye to is mushaayare ki behtrin ghajal mani jaayegi...
jaise
कौन किसका है सगा और किसे गैर कहें?
फिर ज़मीं पर कहीं ताइर कहीं ताहिर क्यों है?
" सगा से ज्यादा बेहतर होता अपना...आदि ""
'saga' ko badalkar 'apna' karne se ek matra barh jayegee. 'kisaka' ko 'apna' se badal sakte hain. 'kaun apna hai saga aur kise gair kahen? aap is tarah parh sakte hain.
jee bahut khoob
आदरणीय आचार्य जी
अभिनव प्रयागों से सजी यह ग़ज़ल बहुत सुन्दर है| अगर हम गौर से देखे तो इस ग़ज़ल की खासियत यह है की काफिये दुगुन में चल रहे है जैसे कि

कहीं काफ़िर कहीं कदीर
कहीं नाफिर कहीं नादिर
कहीं नासिख कहीं नाशिर

और यही ग़ज़ल की खूबसूरती और बढ़ा देते है|
बहुत बहुत बधाई|
मुशायरे में शिरकत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद|
aapkee painee parakhee nigah ka shukrgujar hoon.
मैं तो मंत्रमुग्ध हो गया शब्दों की इस कारीगरी को देखकर, आचार्य जी खुद की इस ग़ज़ल को मुक्तिका कहते हैं तो मैं भी इसे ग़ज़ल कहने का साहस नहीं करूँगा। पर जो भी है अद्भुत, अद्वितीय है। सादर।
आत्मीय !

प्यार कहें या प्रेम कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं उर्दू नहीं जानता, सिर्फ हिंदी जानता, बोलता और लिखता हूँ. इसी हिन्दी की कोई रचना बुन्देली, कोई बघेली, कोई मालवी, कोई निमाड़ी, कोई उर्दू, कोई मैथिली, कोई भोजपुरी, कोई ब्रिज, कोई अवधी, कोई राजस्थानी, कोई हरयाणवी, कोई छत्तीसगढ़ी कह दी जाती है. क्या पोशाकें बदल जाने से शख्सियत बदलती है? नहीं... तो कुछ शब्द बदलने से रचना की भाषा कैसे बदल जाती है? जो रचना हिन्दी के व्याकरण और पिंगल पर खरी है वह खारिज क्यों कर दी जाती है? गजल कहकर खारिज होने का तमगा पाने से मुक्तिका कहकर लोगों तक पहुँचना बेहतर है. आज के भारत और कल के विश्व की भाषा हिन्दी तभी हो सकती है जब वह सभी भाषाओँ की खासियतों को पचा ले और खामियों को दूर करे. मेरा समस्त शब्द साधना सिर्फ इसी उद्देश्य के लिये समर्पित है.
two bahars can never be identical.
आदरणीय आचार्य जी, मुशायरे मे आपकी ग़ज़ल पढ़े जाने का इन्तजार हम सबको रहता है, सभी के सभी शे'र बेहतरीन लगे,
नीर जब आँख में बाकी न 'सलिल' सूख गया.
फिर ज़मीं पर कहीं सलिला कहीं सागर क्यों है?
उम्द्दा शे'र
भैया!
वन्दे मातरम.
मैं तो बगावत से बहुत डरता हूँ... आपका प्यार पाकर बहुत हिम्मत जुटाकर कहाँ यह है कि यह समय और यह अवसर भाषा, भाषा के साथ संस्कार, सभ्यता और संस्कृति को गढ़ने और हाथ में हाथ लेकर बढ़ने का है. वाहवाही के साथ सीखना-सिखाना भी जारी रहे वर्ना मेरे जैसा कम जाननेवाला जैसे का तैसा रह जाएगा. ग़ज़ल के जानकार उस्ताद की भूमिका में आयें और कमजोर शे'रों को दुरुस्त करें. अगर ऐसा लगता हो कि इससे रचनाकार को बुरा लगेगा तो मैं अपनी ओर से आश्वस्त करता हूँ कि मेरी रचनाओं को दुरुस्त कर यह काम शुरू हो... मैं खुद को खुश नसीब समझूँगा कि किसी ने मेरे कलाम को इज्जत बख्शी जो उसे ध्यान से पढ़कर दुरुस्त किया.
आचार्य जी, आपका प्रोत्साहन पाकर कुछ लिखने की हिम्मत कर सका हूँ , चूकि आप मुक्तिका कह कर ग़ज़ल के नियम क़ानून से बड़ी उस्तादी से अपनी ग़ज़ल / मुक्तिका को अलग कर लेते है, इसलिये कुछ कहना नहीं बनता है |
जितना मैं सीख सका हूँ उसके हिसाब से यदि ग़ज़ल की बात की जाय तो ग़ज़ल का पहला शे'र जिसे मतला कहा जाता है उसी से रदीफ़ और काफिया तय होता है , आपने शुरुआत की है ............

फिर ज़मीं पर कहीं काफ़िर कहीं क़ादिर क्यों है?
फिर ज़मीं पर कहीं नाफ़िर कहीं नादिर क्यों है?

रदीफ़ पहले से ही तय था जो यहाँ भी है ....क्यों है
अब यदि काफिया की बात की जाय तो ...कादिर और नादिर को देखा जायेगा और काफिया "दिर" तय होगा, किन्तु आप के आगे के शे'रो मे काफिया के रूप मे "इर" प्रयोग हुआ है तथा मक्ता मे "र" प्रयोग हुआ है , इस प्रकार काफिया दोष है |

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