For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

पूर्वराग के रंग कच्चे भी और पक्के भी: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

मानव के रूप में हम सभी ने अपने अंतस में शृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों स्वरूपों का अनुभव अवश्य किया होगा I इस रस का स्थाई भाव ‘रति’ है I शृंगार रस की मूल भावना काम है, जो चार पुरुषार्थों में से एक माना जाता है I मैं एक बात स्पष्ट करना चाहूंगा कि काम भावना पर आधारित होते हए भी शृंगार रस न तो भदेश होता है और न अश्लील और यदि कोई कवि अश्लील शृंगार योजना करता है तो वह न केवल शृंगार की मर्यादा तोड़ता है अपितु वह शृंगार में वीभत्स की योजना करता है I साहित्यिक परिभाषा में इसे रसाभास कहते हैं I रसाभास को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि जब किसी रस विशेष की उपस्थिति  में अचानक कोई विरोधी रस आ जाये I जैसे किसी की मय्यत में अचानक कोई जोर-जोर से हँसने लगे या ठहाका लगाने लगे, तब रसाभास की स्थिति होती है I शृंगार में अश्लीलता रसाभास की स्थिति है I इससे प्रेम का सात्विक पक्ष नष्ट हो जाता है I ऐसे योजना करने वाले कवि या साहित्यकार को सभ्य समाज में सम्मान नहीं मिलता I संयोग शृंगार पर अधिक चर्चा  यहा अभीष्ट नहीं है पर राष्ट्र कवि रामधारी सिह ‘दिनकर’ कृत ‘उर्वशी’ महाकाव्य की एक वाचिक शृंगार योजना को उद्धृत करने का मोह मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ I देखिये-

तू मनुज नहीं, देवता, कांति से मुझे मंत्र-मोहित कर ले,

फिर मनुज-रूप धर उठा गाढ़ अपने आलिंगन में भर ले.

मैं दो विटपों के बीच मग्न नन्हीं लतिका-सी सो जाऊँ,

छोटी तरंग-सी टूट उरस्थल के महीध्र पर खो जाऊँ.

आ मेरे प्यारे तृषित! श्रांत ! अंतस्सर में मज्जित करके,

हर लूँगी  मन की तपन चाँदनी, फूलों से सज्जित करके.

रसमयी मेघमाला बनकर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी,

पलकों की छाँव-तले अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी.

[उर्वशी राजा पुरुरुवा से कहती है, हे प्रिय तुम मनुष्य नहीं, देवता हो (अपन्हुति अलंकार) तुम अपनी आभा से मुझे मंत्रमुग्ध कर लो और फिर अपने वास्तविक मनुज रूप में मुझे उठाकर अपने प्रगाढ़ आलिंगन में भर लो I तुम्हारी दो बाँहों रूपी विटप के बीच मैं एक नन्ही कलिका की भाँति सो जाऊँ और रस की छोटी सी तरंग बनकर तुम्हारे पर्वत जैसे विशाल वक्षस्थल पर गिरकर टूटकर विलीन हो जाऊँ I हे मेरे थके हुए प्रिय, मैं अपने हृदय सरोवर में तुम्हें भलीविधि नहलाऊँगी और चाँदनी के फूलों से सज्जित कर मैं तुम्हारे सारे ताप हर लूँगी I इतना ही नहीं अनुराग रस से निर्मित मेघमाला बनकर मैं तुम्हे चारों ओर से घेरकर आच्छदित कर लूँगी I फिर अपनी पलकों की छाया के नीचे मैं तम्हे अपने अधरों की सुधा पिलाऊँगी ]

शृंगार रस की कसौटी वियोग है I जो वस्तु पहुँच से दूर होती है, उसे पाने की ललक और तड़प उतनी अधिक होती है I साहित्य में वियोग शृंगार के चार विभेद हैं -पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण I इनमें आज पूर्वराग को समझने का प्रयास करेंगे I पूर्व राग में नायक और नायिका का एक दूसरे से परिचय नहीं होता I परिचय के बिना वियोग की अनभूति  विचित्र लगती है I पर ऐसा संभव है I जब लड़के या लड़की के व्याह की बात करने के लिए लोग विमर्श के लिए बैठते हैं, तब मध्यस्थ लोग लड़के या लड़की के सौंदर्य, शिक्षा, कार्य पटुता, अच्छे स्वभाव और संस्कार की बात कर दोनों के गुणों को अधिकाधिक उजागर करते हैं, जिन्हें लड़के या लड़कियाँ अपने सखा या सहेली के साथ छिपकर सुनते हैं, तब एक अनुराग स्वतः उत्पन्न होता है I यह अनुराग प्रत्यक्ष-दर्शन, चित्र-दर्शन, स्वप्न-दर्शन और गुण-श्रवण से भी होता है I नल-दमयंती के कथानक में दमयंती हंस के मुख से राजा नल के रूप, सौंदर्य और गुण को सुनकर राजा के अनुराग में पड़ जाती है I मलिक मुहम्मद जायसी की पद्मावत में राजा रत्नसेन हीरामन नामक एक तोते के मुख से पद्मिनी के अप्रतिम सौंदर्य का बखान सुनकर पूर्वानुराग वियोग में पागल हो जाते हैं  I जायसी कहते हैं -

सुनतहि राजा गा मुरझाई । जानौं लहरि सुरुज कै आई ॥

प्रेम-घाव-दुख जान न कोई । जेहि लागै जानै पै सोई ॥

परा सो पेम-समुद्र अपारा । लहरहिं लहर होइ बिसँभारा ॥

बिरह-भौंर होइ भाँवरि देई । खिनखिन जीउ हिलोरा लेई ॥

इतना ही नहीं अपनी स्वकीया रानी नागमती के लाख अनुरोध को तिरस्कृत कर वह योगी का वेश बनाकर पद्मावती से मिलने के लिए सिंघल दीप की ओर सोलह हजार कुंवरों को लेकर निकल पड़ता है-

निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँड़ा  नगर मैलि कै धूरी ॥

राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥

यह है पूर्वराग की महिमा I इससे भगवान रामचंद्र और सीता जी भी नहीं बचीं I राम के सौंदर्य-वर्णन से वे भी पूर्वनुरागित हो उठीं –

बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू।।

तासु वचन अति सियहि सुहाने। दरस लागि लोचन अकुलानेII

इतना ही नहीं पुष्पवाटिका में ज्यों ही सीता ने राम को देखा – भये विलोचन चारू अचंचल i मनहु सकुचि  निमि तजेउ दृगंचल II

राजा निमि सीता के पिता राजा जनक के पूर्वज हैं I किसी शाप के कारण उनका निवास मनुष्य की पलकों पर हुआ I  उन्हीं के भार से हमारी पलकें गिरती हैं और हम सायास उन्हें उठाते हैं I मगर यहाँ अपने कुल की बेटी में पूर्वानुराग देखकर बड़े-बूढ़े होने के नाते वे सीता की पलक छोड़कर चले गए और जब पलकों पर भार नहीं रहा तो- भये विलोचन चारू अचंचलI

उधर राम पर भी पूर्वानुराग का विछोह प्रभावी है तभी तो इतने मर्यादित राम भी अपने अनुज लक्ष्मण से यह कहने को बाध्य हो जाते है कि –

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई।।

पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई।।

जासु बिलोकि अलोकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा II

राम अपन मन के क्षुब्ध होने की बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं, पर जब उन्हें लगता है कि मन की दुर्बलता अनायास उनसे प्रकट हो गयी है तो साथ में यह भी कहते है कि –

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता।।

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ।।

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी।।

तुलसी जैसा भक्त कवि भी अपने आराध्यों के बीच पूर्वराग का चित्रण करने से अपने को रोक नहीं सका I यही पूर्वराग की  नैसिर्गकता और उसकी अपरिमेय महत्ता है, जिसे आज विज्ञान भी स्वीकारने लगा है I

वियोग शृंगार का एक घटक होने के कारण इसमें वियोग की दसों दशाएं भी पूरे भाव से होती हैं I ये दशाएं हैं– चिंता, अभिलाषा, स्मरण, गुण कथन, उद्विग्नता, प्रलाप, उन्मत्तता, रोग, मूर्च्छा और करुण I पूर्वराग की उत्पत्ति के जो चार उपादान हैं, उनमे पहला है –प्रत्यक्ष दर्शन I इसे वृष्ठानुराग कहते हैं I अंग्रेजी में इसे LOVE AT FIRST SIGHT कहते है और यह बहुत ही सम्मोहक और प्रभावी पूर्वानुराग है I इसका रंग पक्का  होता है I अतः इसे मंजिष्ठा राग भी कहते हैं I

दीठि पड़ी मुख चन्द्र पर धंसा पंचशर हाय I

रहनि मरनि अब जीव की कैस्यो कही न जाय II

मिटता जो हिय से नहीं   अरु पक्का अनुराग I

बुधजन उसको है कहत यहु मंजिष्ठा राग II 

इस संबंध में महाकवि रसलीन का एक दोहा मिलता है -

हिये मटुकिया माहि मथि दीठि रई सो ग्वारि

मो मन माखन लै गई देह दही सो डारि॥

[वह ग्वालन हृदय रूपी मटकिया को अपने दृगों से मथ गयी और नायक का मन रूपी मक्खन निकाल ले गयी अब तो केवल देह ही बची है ]

दूसरा उपादान है चित्र-दर्शन I इसका बड़ा ही सटीक उदाहरण जायसी के पद्मावत में मिलता है I अलाउद्दीन खिलजी दर्पण में रानी पद्मिनी की केवल एक झलक देखता है और शह-मात का खेल पूरा हो जाता है –

बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी ॥

होतहि दरस परस भा लोना । धरती सरग भएउ सब सोना II

अगला उपादान स्वप्न दर्शन है I ऐसे प्रसंग वास्तविक जीवन में दुर्लभ हैं I केवल कथाओं में इनकी योजना हुयी है I स्वप्न-भंग होते ही यह राग समाप्त हो जाता है I इस पूर्वराग का रंग कच्चा होता है I जैसे हल्दी का रंग कच्चा होता है और कुछ ही दिनों में उड़ जाता है I अतः इस पूर्वराग को हरिद्रा राग कहते हैं I कहा भी गया है -क्षणमात्रानुरागेषु हरिद्राराग उच्यते I 

अंतिम उपादान गुण-श्रवण है I इसको सुरतानुराग भी कहते हैं I रसलीन के अनुसार  -

जाहि बात सुनि कै भई तन मन की गति आन।

ताहि दिखाये कामिनी क्यौं रहि है मो प्रान॥

जो पहिलै सुनि कै निरख बढ़ै प्रेम की लाग।
बिनु मिलाप जिय विकलता सो पूरुब अनुराग॥

अनुराग का होना एक बड़ी ही स्वाभाविक और नैसर्गिक क्रिया है I पर यह अंतरानुभूति का विषय है I यह घाव जिसे लगता है वह स्वयं में ही व्यथित होता है I वह अपनी पीड़ा किसी से कह नहीं सकता I गूंगे के गुड़ की तरह वह आस्वाद तो लेता है पर उसमें  जो चुभन है, जो दर्द है,  वह किसी से साझा नहीं किया जा  सकता I इस बारे में रसलीन की यह उक्ति बड़ी ही सटीक है - 
होइ पीर जो अंग की कहिये सबै सुनाइ।
उपजी पीर अनंग की कही कौन बिधि जाइ॥

[ अंग (शरीर) की पीड़ा हो तो सबसे कही जा सकती है पर अनंग (कामदेव ) की पीड़ा किस प्रकार कही जाए ?] 

(अप्रकाशित/मौलिक )

Views: 358

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आदरणीय लक्ष्मण भाई , ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाई "
15 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी and Mayank Kumar Dwivedi are now friends
17 hours ago
Mayank Kumar Dwivedi left a comment for Mayank Kumar Dwivedi
"Ok"
yesterday
Sushil Sarna commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी रिश्तों पर आधारित आपकी दोहावली बहुत सुंदर और सार्थक बन पड़ी है ।हार्दिक बधाई…"
Apr 1
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"तू ही वो वज़ह है (लघुकथा): "हैलो, अस्सलामुअलैकुम। ई़द मुबारक़। कैसी रही ई़द?" बड़े ने…"
Mar 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"गोष्ठी का आग़ाज़ बेहतरीन मार्मिक लघुकथा से करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह…"
Mar 31
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"आपका हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी।"
Mar 31
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। बहुत सुंदर लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
Mar 31
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"ध्वनि लोग उसे  पूजते।चढ़ावे लाते।वह बस आशीष देता।चढ़ावे स्पर्श कर  इशारे करता।जींस,असबाब…"
Mar 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-120
"स्वागतम"
Mar 30
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. रिचा जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Mar 29
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-177
"आ. भाई अजय जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Mar 29

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service