सु्धीजनो !
दिनांक 16 अगस्त 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 40 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए पाँच छन्दों का चयन हुआ था.
यथा, दोहा, कुण्डलिया, चौपई, कामरूप तथा उल्लाला
एक चौपई छन्द को छोड़ कर अन्य चार छन्दों में प्रस्तुतियाँ आयीं.
इस बार भी छन्दोत्सव में प्रबन्धन और विशेष रूप से कार्यकारिणी के कई सदस्यों की अपेक्षित उपस्थिति नहीं बन सकी अथवा बाधित रही.
कुल मिला कर 19 रचनाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से इस आयोजन को समृद्ध किया. इसके अलावे कई सदस्य पाठक के तौर पर भी अपनी उपस्थिति जताते रहे. उनके प्रति मैं हार्दिक रूप से आभार व्यक्त करता हूँ.
समस्त रचनाओं का श्रमसाध्य संकलन डॉ. प्राची सिंह ने किया है. मैं आपके इस उदार और स्वयंमान्य सहयोग के लिए आपका हृद्यतल से आभारी हूँ.
छंद के विधानों के पूर्व प्रस्तुत होने के कारण स्वयं की परीक्षा करना सहज और सरल हो जाता है. इसके बावज़ूद कतिपय रचनाओं में कुछ वैधानिक तो कतिपय रचनाओं में कुछ व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियाँ दिखीं.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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क्रम संख्या |
रचनाकार |
रचना |
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सौरभ पाण्डेय जी |
दोहा छन्द |
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आ० अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी |
दोहा ............................ दीदी राखी बाँधकर, देती आशीर्वाद । (संशोधित) मन से देश गुलाम हैं, करना तुम आज़ाद॥
नेता अफसर लूटते, जनता हुई फकीर । भूखे नंगों में दिखे, भारत की तस्वीर ॥
भूख अशिक्षा व्याधि का, कैसे करें इलाज। शायद इसकी खोज में, निकला है ज़ाँबाज॥(संशोधित)
पथरीली राहें मगर , सपने नये सजाय । लिए तिरंगा हाथ में, कदम बढ़ाता जाय ॥
देश प्रेम, उत्साह जो, बच्चों में है आज। हम सब के दिल में रहे, तब हो सही सुराज॥
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3 |
आ० डॉ० गोपाल कृष्ण भट्ट ‘आकुल’ जी |
कुण्डलिया छंद 1 लिए तिरंगा हाथ में, बालक हुआ अधीर। दौड़ पड़ा ले कर उसे, जैसे हो शमशीर। जैसे हो शमशीर, जीत लेगा वह दुनिया। लिए उमंग अपार, बदल देगा वह दुनिया। (संशोधित) कह ‘आकुल’ कविराय, देख कर रंग बिरंगा। दौड़ा नंगे पाँव, हाथ में लिए तिरंगा। 2 छूते मंजिल को वही, मतवाले रणधीर। हाथ तिरंगा थाम के, करते जो प्रण वीर। करते जो प्रण वीर, युगंधर कब रुकते हैं। मात, पिता, गुरु और राष्ट्र ॠण कब चुकते हैं। कंटकीर्ण हो ऱाह, हौसलों के बल बूते। रुकते ना जो पाँव, वही मंजिल को छूते। 3 पीछे मुड़ ना देखते, बालक-वीर-मतंग। ध्येय लिए ही निकलते, पैगम्बर पीर निहंग। पैगम्बर पीर निहंग, धर्म का पाठ पढ़ाते। राष्ट्रगीत औ गान, राष्ट्र का मान बढ़ाते। ध्वज का हो सम्मान, सभी सुख उससे पीछे। नहीं समय-वय-काल, देखते मुड़ कर पीछे।
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4 |
आ० अविनाश एस० बागडे जी |
(दोहे ) ====
. लिए तिरंगा हाथ में , देता ये सन्देश। उम्र न बाधक है कहीं ,चलो बचाएं देश।। . चाहे लख हो कालिमा , रहे कटीली राह। जोश लगन मन में रहे ,और देश की चाह।।
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5 |
आ० अशोक कुमार रक्ताले जी |
दोहा छंद !
नौनिहाल अब देश के, भरने लगे उड़ान |
देश प्रगति उत्थान की, होती है जब चाह | अद्भुत होता है वहां, हर मन में उत्साह ||
सबको अपनाने चला, नन्हा नंगे पैर | भुला द्वेष की भावना, आपस का सब बैर ||
राष्ट्र ध्वजा का कम न हो, लेश मात्र सम्मान |
राष्ट्र ध्वजा फहरा रही, भारत माँ की शान | गूंज रहे हर ओर अब, राष्ट्र भक्ति के गान ||
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6 |
आ० रमेश कुमार चौहान जी |
प्रथम प्रस्तुति दोहा
द्वितीय प्रस्तुति कामरूप छंद
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7 |
आ० डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी |
कामरूप छंद मन देखता है मुग्ध इस नव चरण-तल की छांह पांव छोटे से नंगे मृदुल काँटों भरी राह लाल वसुधा का चोप अद्भुत अंतस में अगाह जन्म-भूमि जननि का महकता है वत्सल उछाह
धुन है लगन गति रवानी है संकल्पयुत चाल इस धरा मानस पर तैरता यह शावक मराल राष्ट्र ध्वज इक कर दूजे सूत मुठ्ठी बंधा हाथ तरणि वात मधुर सुरभित स्वप्न कामना का साथ
बालक देश का कौपीन तक का नही निस्तार चला एकाकी बाल हरि सा पीत अम्बर धार या वीर वामन बन फिर बढ़ा निज काया कलाप एकदा फिर से तू लोक त्रय को पदों से नाप (संशोधित रचना ) द्वितीय प्रस्तुति दोहा माँ का गौरव है चपल तू भारत का लाल . . . मिले लंगोटी ना सही मन है परम स्वतंत्र . माता कहती वीर तू जग सारा ले घूम |
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8 |
आ० सीमा हरि शर्मा जी |
दोहे
रोको मत कोई मुझे, परचम मेरे हाथ l फहराऊँगा मैं ध्वजा, आओ मेरे साथ ll (संशोधित) -- भेदूंगा अभिमन्युं सा, चक्र-व्यूह मैं आजl बेच रहे जो देश को, छीनूँ उनके ताजll (संशोधित) -- आजादी आई भले, आम आदमी दूर । (संशोधित) सबने अपने हित यहाँ, साधे हैं भरपूर ll -- बड़े बड़ों ने कर दिया,देश आज बेहाल l उत्तर पहले दो हमें,बच्चे करें सवाल ll -- समझाऊंगा मैं तुम्हें, आजादी का अर्थ l पल भर भी बीते नहीं, समय हमारा व्यर्थ ll
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9 |
आ० शिज्जू शकूर जी |
दौड़े बालक पंक पर, मन में ले उत्साह। देशप्रेम की भावना, दिल कहता है वाह।।
देशप्रेम ध्वज दीनता, कैसा अद्भुत मेल। देशप्रेम अब बन गया, बच्चों का ही खेल।।
एक वर्ष में एक दिन, आता सबको याद। भारत अपना देश है, भारत है आज़ाद।।
सबकी है स्वाधीनता, सबका है अधिकार। कहता बच्चा देश का, ये अपना त्यौहार।।
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10 |
आ० छाया शुक्ला जी |
दोहा - छंद केशरिया उत्साह भरे, श्वेत शान्ति बरसाय |
इसी तिरंगे पर सदा, अर्पित मेरे प्राण | देख तिरंगा बढ़ गया, बालक का उत्साह |
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11 |
आ० सरिता भाटिया जी |
दोहा छंद :-- श्वेत, हरा औ केसरी, भारत माँ की शान
देश प्रेम की भावना, लेगी जब आकार ध्वजा हाथ में देश की, मन में है विश्वास कुण्डलिया :-- बच्चा वो नादान है, लेकिन मन में चाह
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आ० सत्यनारायण सिंह जी |
प्रथम प्रस्तुति
तन मन सुकोमल, अंग श्यामल, मन अडिग विश्वास। (संशोधित) हो अरि अचम्भित, मन न दम्भित, देख तेरी शान। मन आज रंगा, ध्वज तिरंगा, दे रहा उपदेश।
द्वितीय प्रस्तुति
मान तिरंगा देश का, है अनुपम वरदान। (संशोधित) याद दिलाता है हमें, वीरों का बलिदान।। वीरों का बलिदान, व्यर्थ ना जाने पाए। सदा रहे यह भान, शान पर आँच न आए।। पुलकित है नव गात, देख कर रंग बिरंगा। भारत की पहचान, देश का मान तिरंगा ॥१॥ (संशोधित) ---------------------------------------------------- लिया आज प्रण बाल ने, हाथ तिरंगा थाम।ऊँचा अपने देश का, आज करूँगा नाम।१। (संशोधित) वीर सपूतों से सजी, मात भारती गोद। देख जोश निज लाल का, होता माँ को मोद।२। (संशोधित) भारत माँ से है मिली, देश भक्ति सौगात। याद दिलाती है सदा, दुश्मन को औकात।३। भेद भाव मन ना छुए, जाँत पाँत से दूर। सदा अकिंचन बाल मन, निज मस्ती में चूर।४। बढे तिरंगा हाथ ले, वीर बाल के पैर ।देश प्रेम मन में जगा, अब ना अरि की खैर।५। (संशोधित) |
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आ० गिरिराज भंडारी जी |
प्रथम प्रस्तुति दोहे **** छोटे कर हैं, क्या हुआ , काम बड़ा है देख लिये तिरंगा लिख रहा , देश प्रेम आलेख
चाहे रस्ता हो कठिन , मगर इरादा नेक रुकता कब है राह में, बाधा रहे अनेक
लज्जित लगता भाग्य भी, अध नंगे को देख (संशोधित) सोचें, दोष समाज का, या विधिना का लेख
बच्चे से ही मांगिये , राष्ट्र प्रेम की भीख या फिर गुरु ही मान कर, कभी आइये सीख
आज़ादी से तुम कहो , कैसे रख लें आस आज़ादी का जब हमें , रहा नहीं विश्वास
बरस गये सड़सठ मगर , जनता का ये हाल कोई भूखा मर रहा , कोई माला माल
द्वितीय प्रस्तुति काम रूप छंद
क्या खोजता है , दौड़ता ये , ले तिरंगा हाथ क्यों है अकेला, इस खुशी में, क्या मिलेगा साथ क्या मर चुकी है , भावनाएं , मर चुकी हर बात क्या यों भटकता, ही रहेगा, तिफ्ल ये दिन रात (संशोधित)
हैं पाँव नंगे, जिस्म आधा, ढँक सका है वस्त्र उत्साह लेकिन, कम कहाँ है, बस यही है अस्त्र कुछ राह भी तो, है कठिन सा, कीच चारों ओर (संशोधित) माँगूं खुदा से, सब दिलों में, तू जगा दे भोर
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आ० जवाहर लाल सिंह जी |
प्रथम प्रस्तुति दोहे
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द्वितीय प्रस्तुति कुण्डलियाँ
छोटे छोटे पाद हमारे, छोटे मेरे हाथ. किन्तु नहीं परवाह है, ध्वजा तिरंगा साथ . ध्वजा तिरंगा हाथ, साहस बढ़ता ही जाय रोके ना अवरोध, उजाला राह दिखाय लक्ष्य हमारा नियत, चढ़ें जा ऊंचे कोटे चलना ही है मन्त्र, साथ हों बड या छोटे
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आ० सचिन देव जी |
नाजुक कोमल हाथ मैं , झंडा प्यारा थाम शिखर पताका लहराय , देता है पैगाम
पहने है सफ़ेद हरा , केसरिया परिधान ध्वज तिरंगा देता है , भारत को पहचान
जैसी इसकी आन है , वैसी ही है शान इसकी रक्षा के लिये , सैनिक देते जान
झंडा ऊँचा हो सदा, वीरों का अरमान तीन रंग मैं हैं छिपे, कितने ही बलिदान
घर-घर झंडा लहराय , लेकिन रखना ध्यान भूले से भी न करना , झंडे का अपमान
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आ० अरुण कुमार निगम जी |
दोहा छन्द : ******************************************* तन का रंग न देखिये , सुनिये मन की तान कुण्डलिया छन्द : ********************************************* (1) बंजर है मेरे लिये , उपवन उनके पास (2) हीरा हूँ मैं खान का, मुझे न कमतर आँक उल्लाला छन्द : ********************************************** छला न जाये फिर कहीं ,नहीं नहीं फिर से नहीं अब मृगतृष्णा दूर हो , सच्चाई भरपूर हो
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आ० अनिल चौधरी ‘समीर’ जी |
कुण्डलिया छन्द
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आ० लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी |
दोहे लिए तिरंगा दौड़ता रुके न इसके पाँव यह तो एक प्रतीक है, देख समूचे गाँव |
दौड़े नंगे पाँव ही, लिए तिरंगा हाथ, कांटे चुभते जा रहे, भली करेंगे नाथ |
कर्णधार यह देश का, दिल में है अरमान, (संशोधित) देश भक्ति के भाव की,यही बड़ी पहचान |
ऐसे निश्छल भाव के, भारत माँ के लाल भावी प्रहरी है यही, इनकी करे सँभाल |
मक्कारी छल छद्म से, ये है कोसों दूर, जय जय माँ जय भारती, ये ही तेरे नूर |
कुण्डलिया छोटी सी ही उम्र में, समझे अपना कर्म, (संशोधित) लिए तिरंगा दौड़ता, राष्ट्र प्रेम ही धर्म | राष्ट्र प्रेम ही धर्म, प्रेम पर प्रभु बलिहारी अब हम पर दायित्व निभाना जिम्मेदारी हम भारत के लाल, करे न समय की खोटी बड़े करे अब काम, जिन्दगी चाहे छोटी |
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आ० राम शिरोमणि पाठक जी |
दोहे नन्हे-नन्हे कर लिए, कोमल पुष्प समान।
देश प्रेम की भावना,गहरी और अथाह।
शीश कटा पर झुका नहीं,हँस कर देते जान!!
खुद को देते कष्ट वे,हम सब को आराम
लिए तिरंगा हाथ में,चेहरों पे मुस्कान
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आदरणीय गोपाल नारायनजी,
संशोधन हेतु आपका निवेदन आ गया है. इस हेतु धन्यवाद. मैं आयोजन में प्रस्तुत हुए और इस संकलन में सम्मिलित आपकी रचना से इस संशोधित छन्द-रचना को बदल लूँगा. किन्तु, उससे पहले एक आग्रहपूर्ण प्रश्न है कि क्या आपने कामरूप छन्द पर उपलब्ध आलेख एक बार देख लिया है ?
आदरणीय, हर छन्द की अपनी एक स्पष्ट शैली होती है, जो विधान सम्मत होने के साथ-साथ एक परम्परा का निर्वहन करती है. उस शैली में तनिक परिवर्तन कर छन्दशास्त्री अपनी प्रयोगधर्मिता के अंतर्गत काव्य-कौतुक का प्रभाव उत्पन्न करते हैं. परन्तु, उससे पहले उक्त छन्द के मर्म को हृदयंगम करना अत्यंत आवश्यक हुआ करता है. अन्यथा, ऐसा कोई प्रयोग छन्द-दोष का कारण बन जाता है.
दूसरा महत्त्वपूर्ण विन्दु है, कि छन्द-रचनाएँ पाठन से अधिक वाचन के लिहाज को मानती हैं. उसी अनुसार उनकी मात्रिकता हुआ करती है. उदाहरण के लिए, घनाक्षरी जैसा छन्द भी, जोकि विशुद्ध रूप से वर्णिक छन्द है, एक विशेष वाचन या गायन शैली के कारण मात्रिकता के मूल नियमों को नकार नहीं सकता.
छन्द के पदों में चरण यति के अनुरूप हुआ करते हैं. लेकिन यति मात्र चरणों के अनुरूप नहीं होती. (इस तथ्य को भी स्पष्ट करता हुआ एक आलेख उपलब्ध है). किन्तु, यतियाँ मात्रिकता का निर्वहन करती हैं. उसी के अनुसार पद हुआ करते हैं.
आपसे अनुरोध है कि आप कामरूप छन्द पर उपलब्ध लेखों को अपने अनुसार देख लें. तदनुरूप अपनी रचना में संशोधन करें. आदरणीय, आप स्वयं पद्य-पारखी हैं. फिर आप जैसा कहेंगे मैं वैसा ही करूँगा.
//मैंने तुरंत दूसरा कामरूप छंद लिखा फिर याद आया एक छंद एक ही बार भेजना है i फिर चुप बैठ गया और त्रुटिपूर्ण कामरूप छंद को संशोधित किया //
छन्द प्रस्तुति को लेकर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है आदरणीय. अलबत्ता एक दिन में एक ही प्रविष्टि भेजने या अपलोड करने का नियम अवश्य है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
आपका कथन स्वीकार्य है किन्तु आदरणीय संशोधन तो संशोधन ही होता है i इसे अधिक मांजने पर इसका स्वरुप ,मौलिकता सब नष्ट हो जायेगी फिर भी शायद वह बात न आ पाए जिसकी अपेक्षा है अतः यह संशोधन ऐसा ही रहने दे i जो दूसरा छंद रचा था वह भी ससम्मान प्रस्तुत है पर अभी मुझे आपके मार्गदर्शन का अनुसरण करना बाकी है
कामरूप छंद
राह दुर्गम पर चल पड़ा है देश का यह लाल
पांव में थिरकन संकल्प उर है समुन्नत भाल
दीखते झलका चरण मृदु में मुष्टि है आबद्ध
खोजने निकला हस्त-ध्वज हो देश का प्रारब्ध
सामने निर्जन अगम कानन और अलखित राह
चोप है मन में हौसला है उष्ण–रक्त-प्रवाह
अहो ! जन-गण-मन नवल भारत उठ इसे पहचान
‘इकला चला है‘ और कर मे फकत नन्ही जान
आजादे वतन का अर्थ क्या है उसको न ज्ञात
उजाले को पर दिवस तम को जानता वह रात
पांव अपने पर खड़ा होना पर न रहना शांत
भागना गिरना नृत्य करना यही जीवन कान्त ! सादर i
//संशोधन तो संशोधन ही होता है i इसे अधिक मांजने पर इसका स्वरुप ,मौलिकता सब नष्ट हो जायेगी //
आपका कहा शिरोधार्य. वैसे आप जिस मूल रचना की बात रहे हैं वह कामरूप के मानकों पर पूरी तरह से खारिज हो गयी है. सो, क्या संशोधन और क्या नया प्रस्तुतीकरण. चूँकि यह संशोधित रूप भी उन मानकों को संतुष्ट नहीं कर रहा है जिसकी अपेक्षा थी, इसी कारण से आपसे इतना कुछ कह पाया.
आयोजन में प्रस्तुत और इस संकलन में सम्मिलित मूल रचना से आप द्वारा प्रस्तुत संशोधित स्वरूप से बदल लेता हूँ.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
मै सहमत हूँ -रहिमन फाटे दूध को मथे न माखन होय i पर आगे आपकी कसौटी पर खरा उतरने का प्रयास रहेगा i
सादर i
सादर आभार आदरणीय
आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी सम्पूर्ण रचना कोआप् द्वारा सुझायी गयी नयी रचना से बदल दिया गया है.
सादर
आदरणीय सौरभ पाण्डेय साहब, सादर अभिवादन!
मेरी रचना को सकलन में शामिल करने का हर्दिक आभार। । मेरी आंतरिक ऊर्जा में बृद्धि हुई है। ।अगली बार या इसके बाद छंद रचना में मेरी सहभागिता को बढ़ावा मिलेगा और आप लोगों का मार्गदर्शन भी! नेट की समस्या और ब्यस्तता के कारण मैंने अपनी प्रतिक्रिया विलम्ब से दी है, अपेक्षित सुधार करने की कोशिश भी करूंगा। .सादर!
आदरणीय जवाहर भाईजी, आपकी आश्वस्ति ही आपके गंभीर प्रयास का परिचायक है.
हमसभी को पूर्ण विश्वास है कि आपकी विशुद्ध छान्दसिक रचनाओं से यह पटल ही नहीं, साहित्य-जगत भी लाभान्वित होगा यही तो इस मंच का उद्येश्य है. देखि्ये कि, आपकी प्रस्तुति में वैधानिक दोष न हो कर अक्षरी या तार्किक दोष मात्र हैं.
आप अवश्य ही संशोधन हेतु आदेश करें.
शुभ-शुभ
आदरणीय सौरभ जी एवं आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी का बहुत-बहुत आभार जिन्होंने ने छ्न्दोत्सव की रचनाओं का चिन्हित संकलन इतनी शीघ्रता से प्रस्तुत किया.सादर.
आपके अनुमोदन के लिए सादर आभार आदरणीय अशोक भाईजी.
आदरणीय संचालक महोदय
नियमानुसार अपनी पूरी रचना संशोधन पश्चात पुनः पोस्ट कर रहा हूँ । कृपया इसे पूर्व में पोस्ट की गई रचना के स्थान पर संकलित करने की कृपा करें-
प्रथम प्रस्तुति
दोहा
लेकर बालक राष्ट्र ध्वज, अपने नाजुक हाथ ।
दौड़ रहा है एकला, ऊॅचा करके माथ ।।
भारत अब आजाद है, जन गण का अभिमान ।
राष्ट्र प्रेम है पल्लवित, जन मन एक समान ।।
चाहे आधा नग्न हो, चाहे नंगा पैर ।
पीड़ा मुखरित है नही, मना रहा वह खैर ।।
आजादी के अर्थ को, जाने क्या नादान ।
खुशी उसे तो चाहिये, और नही कुछ भान ।।
बालक के उत्साह को, समझ रहें हैं आप ।
देश प्रेम की भावना, मेटे हर संताप ।।
कुण्ड़लिया
झंड़ा अपने देश का, आन बान है शान ।
दांव लगा कर प्राण को, रखना इसका मान ।।
रखना इसका मान, ज्ञान जो हमें सिखावे ।
श्वेत शांति है देत, हरा खुशयाली लावे ।।
कहता अशोक चक्र, देश हो सदा अखण्ड़ा ।
केसरिया का त्याग, विश्व फैलाये झंड़ा ।।
द्वितीय प्रस्तुति
कामरूप छंद
झंड़ा तिरंगा, हाथ धरकर, नादान लहराय ।
ये मनोहारी, चित्र प्यारी, देख मन को भाय ।।
बालक विचारे, खेल सारे, लगते मुझे फेल ।
गिरने न पावे, दौड़ जावे, ध्वज का यही खेल ।।
झंड़ा पुकारे, ध्वजा हूॅ मै, तुम्हारा अभिमान ।
प्रतीक ही नही, देश का मैं, हूॅ आत्म सम्मान ।।
इसको बचाना, वीर तुम अब, निज प्राण के तुल्य।
मत करो कोई, काम ऐसा, गिरे मेरा मूल्य ।।
उल्लाला छंद
आजादी का पर्व यह, सब पर्वो से है बड़ा ।
बलिदान के नींव पर, देश हमारा है खड़ा ।।
अंग्रेजो से जो लड़े, सिर पर बांधे वो कफन ।
किये मजबूर छोड़ने, सह कर उनके हर दमन ।।
रहे अंग्रेज लक्ष्य तब, निकालना था देश से ।
अभी लक्ष्य अंग्रेजियत, निकालना दिल वेश से।
आजादी तो आपसे, सच्चरित्र है चाहता ।
छोड़ो भ्रष्टाचार को, विकास पथ यह काटता ।।
काम नही सरकार का, गढ़ना चरित्र देश में ।
खास आम को चाहिये, गढ़ना हर परिवेश में ।।
सादर धन्यवाद
आदरणीय रमेशजी,
श्वेत शांति है देत, का क्या अर्थ हुआ ?
झंड़ा पुकारे, ध्वजा हूॅ मै, तुम्हारा अभिमान ।
प्रतीक ही नही, देश का मैं, हूॅ आत्म सम्मान ।।
उपरोक्त संशोधन कामरूप के मूल नियमों को संतुष्ट नहीं कर रहा है.
बलिदान के नींव पर संभवतः बलिदानों की नींव पर होना था.
मेरे संशयों को दूर करें भाई.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
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महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |