सब को लगता व्यर्थ है, अर्थ बिना संसार।
रिश्तों तक को बेचता, इस कारण बाजार।।
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वह रिश्ते ही सच कहूँ, पाते लम्बी आयु
जहाँ परखते हैं नहीं, दीपक को बन वायु।।
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तोड़ो मत विश्वास की, कभी भूल से डोर
यह टूटा तो हो गया, हर रिश्ता कमजोर।।
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करे दम्भ लंकेश सा, कुल का पूर्ण विनाश।
ढके दम्भ की धूल ही, रिश्तों का आकाश।।
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रिश्तों में सब ढूँढते, केवल स्वार्थ जुगाड़।
शेष बची है अब कहाँ, अपनेपन की आड़।।
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सुख में सब वाचाल हैं, दुख में बेढब मौन
कौन पराया आज है, बोलो अपना कौन।।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
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