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ग़ज़ल नूर की - रफ़्ता रफ़्ता अपनी मंज़िल से जुदा होते गए

रफ़्ता रफ़्ता अपनी मंज़िल से जुदा होते गए,
राह भटके लोग जिनके रहनुमा होते गए.
.
तज़र्बे मिलते रहे कुछ ज़िन्दगी में बारहा
कुछ तो मंज़िल बन गए कुछ रास्ता होते गए.
.  
चुस्कियाँ ले ले के अक्सर मय हमें पीती रही  
वो नशा होती गयी हम पारसा होते गए.
.
उन चिराग़ों के लिए सूरज ने माँगी है दुआ
सुब्ह तक जलते रहे जो फिर हवा होते गए.
.
ज़िन्दगी की राहों पर जब धूप झुलसाने लगी
पल तुम्हारे साथ जो गुज़रे घटा होते गए.
.
फिर मुहब्बत के सफ़र में वो भी मंज़िल आ गयी
दर्द ही जब ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी दवा होते गए.
.
पत्थरों के शह्र में सब लोग पत्थर ही के थे  
आईने को देख कर कुछ आईना होते गए.
.
“नूर” तुझ को छोड़ना होगा हमें मालूम था
फिर भी ऐ दुनिया! तुझी से आश्ना होते गए.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on August 9, 2018 at 4:37pm

//टाइपिंग सॉफ्टवेर में दिक्कत के चलते गलती हुई है..//

जी,मुझे पहले आप बता चुके हैं,लेकिन मंच पर लिखना पड़ता है,आप जानते ही हैं ।

Comment by Neelam Upadhyaya on August 9, 2018 at 4:19pm

आदरणीय नीलेश जी, नमस्कार।  बहुत ही उम्दा ग़ज़ल की पेशकश ।  बधाई स्वीकार करें। 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on August 9, 2018 at 3:04pm

जी शुक्रिया आ. समर सर.. टाइपिंग सॉफ्टवेर में दिक्कत के चलते गलती हुई है.. आपके कमेंट से कॉपी कर के ठीक किये लेता हूँ मूल प्रति में 
सादर 

Comment by Samar kabeer on August 9, 2018 at 2:28pm

जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है ,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

दूसरे शैर के ऊला में 'तज़र्बे' को "तज्रिबे" कर लें ।

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