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हमने जितने कंटक बोये, इस जीवन में चुनने हैं (गीत 'राज')

गीत

धरती अम्बर पर्वत नदियाँ,सबके ताने सुनने हैं

हमने जितने कंटक बोये, इस जीवन में चुनने हैं

सर्दी गर्मी की मार सही

या बिन मौसम बरसात सही

चंदा तारों से जगमग हों

या काली नीरव रात सही 

हमको तो अभिलाषाओं के,ताने बाने बुनने हैं

हमने जितने कंटक बोये,इस जीवन में चुनने हैं

इक मजहब की दीवार मिले  

या वर्ण वर्ग की रार मिले  

तेरे मेरे  की खाई हो

या द्वेष जलन का हार मिले

हमको तो रिश्तों के मानक ,खामोशी से गुनने हैं

हमने जितने कंटक बोये,इस जीवन में चुनने हैं

पाप औ पुण्य के तीर चलें    

या आतंकी शमशीर चलें 

झूठे वादे झूठे नेता

या पोंगा पंडित पीर चलें

हमको तो सच की थापी से,छल के गठ्ठर धुनने हैं

हमने जितने कंटक बोये,इस जीवन में चुनने हैं

 हम मंजिल से अनजान सही

 मुश्किल में अपनी जान सही

ऊँची उफनाती  लहरे हों

भीतर भीतर तूफ़ान सही

हमको तो सागर के उर से ,सच्चे मोती चुनने हैं

हमको तो अभिलाषाओं के,ताने बाने बुनने हैं

--------मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 2, 2017 at 8:49pm
वाह। हमारी सागर की मोती सी अभिलाषायें, सच की थापी, और रिश्तों के मानकों के साथ सामंजस्य की कड़ी में कंटकों का बोना/ चुनना हमारे जीवन का एक सच है, यथार्थ है। बेहतरीन चित्रण, दर्शन, विचार-मंथन और आह्वान। सादर हार्दिक बधाई आदरणीया राजेश कुमारी जी।

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