2122 2122 2122 212
जिंदगी की जुस्तज़ू में आ गई जाने किधर
अजनबी इस भीड़ में ढूँढे किसे मेरी नजर
बे-नियाज़ी की यहाँ दीवार कैसे आ गई
'हम नफ़स अह्ल-ए-महब्बत कुछ इधर हैं कुछ उधर
साथ साया भी रहेगा जब तलक है रोशनी
कौन किसका साथ देता बेवजह यूँ उम्रभर
लौट कर आती नहीं ये खूब जीले जिंदगी
इक सितारा कह गया यूँ आसमां से टूटकर
खींच लाई झोंपड़ी को जब महल की रोटियाँ
एक दिन आकर अना ने ये कहा जा डूब मर
कोई सीढ़ी भी नहीं है और खाली जेब है
डिग्रियाँ हाथों में लेकर फिर रहा वो दरबदर
दूर कितनी मेरी मंजिल कब मिलेगी क्या पता
जीस्त की जद्दोजहद में खो गई है रहगुज़र
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० निलेश भैया ,आपको ग़ज़ल पसंद आई आपका तहे दिल से शुक्रिया
आ. राजेश दीदी,
बहुत अच्छी ग़ैर-मुरद्दफ़ल ग़ज़ल पेश की आपने.
बहुत बधाई
आद० समर भाई जी, आपकी प्रतिक्रिया से मेरी ग़ज़ल मुकम्मल हुई दिल से बहुत बहुत शुक्रिया .आपको पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया | सादर
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