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चले आ बस एक बार फिर तू ,
अब ये इंतज़ार और नहीं होता

नज़रों के फ़ासलों में है तू दूर,
दिलों के फ़ासलों से तू दूर नहीं होता

चाहते हो आज़माना मुझको तो ,आज़माओ
मगर ये दिल है ,सबका एक सा नहीं होता

तू आ जा मेरे ख़्वाबों में ही सही ,
फिर देखना दुनियाँ में क्या नहीं होता

तलाश मेरी वही है जो वो समझे तो "संतोष"
लेकिन अब मेरी मिन्नतों का भी असर उस पर नहीं होता

#संतोष खिरवड़कर
9826052771
(मौलिक एवं अप्रकाशित

*

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Comment by santosh khirwadkar on August 4, 2017 at 7:21pm

आदरणीय समर साहब नमस्कार /प्रणाम ,
सर्वप्रथम आप को ह्रदय से धन्यवाद एवं आभार ! इस मंच पर आप की प्रतिक्रिया /विचार /सुझाव मार्गदर्शन स्वरुप होता है ! ये मंच हम जैसे प्रशिक्षुओं को इस कला क्षेत्र में आप जैसे स्वामित्व रखने वालों के सानिध्य में सीखने का जो अवसर प्रदान कर रहा है उसके लिए मैं सदैव आभारी रहूँगा ! भविष्य में आप का यही आशीर्वाद स्वरुप मार्गदर्शन सदा ,सतत अपेक्षित !

Comment by Samar kabeer on August 4, 2017 at 6:51pm
जनाब संतोष जी आदाब,अच्छी लगी कविता,बधाई स्वीकार करें ।
'चले आ बस एक बार फिर तू'
इस पंक्ति को यूँ होना चाहिए :-
'चला आ बस एक बार फिर तू'

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