२१२२/११२२/२२ (११२)
रोज़ जो मुझ को नया चाहती है
ज़िन्दगी मुझ से तू क्या चाहती है?
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मौत की शक्ल पहन कर शायद
ज़िन्दगी बदली क़बा चाहती है.
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मशवरे यूँ मुझे देती है अना
जैसे सचमुच में भला चाहती है.
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इक सितमगर जो मसीहा भी न हो,
नई दुनिया वो ख़ुदा चाहती है.
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“नूर’ बुझ जाये चिराग़ों की तरह
क्या ही नादान हवा चाहती है.
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निलेश"नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ.हेमंत जी
बहुत बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए..
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