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शान बड़ी गणतंत्र दिवस की , दुनियां को दिखलायें क्यों (गीत) //अलका ललित

छंद--तांटक
-.-
शान बड़ी गणतंत्र दिवस की , दुनियां को दिखलायें क्यों

.

ख़ौफ़ ज़दा सड़को पर चलती, डर के साये में जीती
देश की बेटी न बोलेगी , क्या क्या उस पर है बीती
नन्ही नन्ही कलियाँ खिलने, से पहले ही तोडा है
जननी को जो जन्मा तो फिर, नारी के सर कोड़ा है
क्या पहने पोशाक यहाँ हम , मुनिया को समझायें क्यों 
शान बड़ी गणतंत्र दिवस की......
.
वादों का सैलाब लिए वो, पाँच साल में आते है
अपनी जेबें भरते है पर जन सेवक कहलाते है
वोटों की खातिर देखो क्या- क्या तरकीब लगाते हैं?
दांव सियासी खेल रहें बस, अपनी सीट बचाते हैं।
डाल डाल औ पात पात हम, यूँ ही चक्कर खायें क्यों
शान बड़ी गणतंत्र दिवस की......

.

दाल दवा दोनों ही महँगी, नाही सस्ती रोटी है

अच्छे दिन कैसे आएंगे जब नीयत ही खोटी है

आतंकी साया पल भर भी दम लेने न देता है
सीमा हो या देश के भीतर वो जीने न देता है

अच्छे दिन की आस लिए हम, दुनिया से उठ जायें क्यों
शान बड़ी गणतंत्र दिवस की......

.

.
"मौलिक व अप्रकाशित"

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 9, 2017 at 11:38am
देश की बेटी न बोलेगी , क्या क्या उस पर है बीती
आतंकी साया पल भर भी दम लेने न देता है
सीमा हो या देश के भीतर वो जीने न देता है

इन पर विचार कीजियेगा सादर
Comment by अलका 'कृष्णांशी' on February 8, 2017 at 8:39pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी ,क्षमा कीजियेगा ,मुझे इस नियम की जानकारी नहीं थी तभी यह गलती हो गई ,शायद इसीलिए किसी ने भी प्रतिक्रिया नहीं दी,, बहुत बहुत धन्यवाद आपका जो आपने मेरी गलती बताई , माफ़ी चाहती हूँ।

इस बंद को अभी हटाती हूँ।
संशोधन के लिए भी बहुत आभार आपका। सादर।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 8, 2017 at 6:15pm

आदरणीया अलका जी आपने शानदार गीत लिखा था लेकिन मैंने प्रतिक्रिया नहीं दी क्योकि मुझे एक बंद में राजनितिक दलों के चुनाव चिन्हों का स्पष्ट प्रयोग दिख गया. अब आपने आदेश किया है तो पूरे गीत पर प्रयास कर रहा हूँ. जहाँ मुझे गेयता की कमी लगी या मात्रात्मक भार ताटंक छंद विधान अनुसार नहीं हैं, वहाँ संशोधन किया है. कुछ शब्द वाक्य विन्यास अनुसार रखे हैं, कहीं कहीं कथ्य के सम्प्रेषण को सुगम बनाने का भी प्रयास किया है. निवेदन कर रहा हूँ-

 

शान दिखा गणतंत्र दिवस की, लोगों को भरमायें क्या?

कितना कुछ टूटा है भीतर, दुनिया को दिखलायें क्या?

.

ख़ौफ़ ज़दा सड़को पर चलती, सहमी-सहमी जीती  है
भारत की बेटी क्या बोले, क्या-क्या उस पर बीती है?
नन्ही कलियों को खिलने से, पहले ही क्यों तोड़ा है? 
जननी को जब जन्मे नारी, क्यों उसके सिर कोड़ा है?
क्या पहने वो, निर्लज आँखेंमुनिया को समझायें क्या?

.
वादों का सैलाब लिए वो, पाँच साल में आते हैं।

अपनी जेबें भरते लेकिन जन-सेवक कहलाते हैं।
वोटों की खातिर देखो क्या- क्या तरकीब लगाते हैं?
दांव सियासी खेल रहें बस, अपनी सीट बचाते हैं।
झूठे वादों के चक्कर में, दुनिया से उठ जायें क्या? 

 

दाल, दवा दोनों ही महँगी, ना ही सस्ता आड़ू है।
अच्छे दिन की आशा में अब, हाथों में बस झाड़ू है।
जन-जन का श्रमदान सफल कब, नीयत ही जब खोटी है। 

निर्धन के हिस्से में आई, बस सपनों में रोटी है
डाल डाल औ पात पात हम, यूँ ही चक्कर खायें क्या?

(वर्तमान राजनितिक दल या जनप्रतिनिधि का सीधा नाम लिखने अथवा चुनाव-चिन्हों का रचना में सीधा प्रयोग उचित नहीं माना जाता है. विशेष रूप से इस मंच पर आरम्भ से ही इसकी मनाही है. वैसे भी कविता बिम्ब-प्रतीकों की विधा है. इसलिए इस बंद पर प्रयास किया है. वैसे आपका बंद किसी कवि सम्मलेन अथवा कवि गोष्ठी के मंच से बहुत वाहवाही बटोरने वाला है, इसमें कोई शंका नहीं है.)

.

पल भर भी आतंकी साया दम कब लेने देता है?
कौन यहाँ जीवन की नैया सीधे खेने देता है?

भूखी प्यासी जनता को वो, मन की बात बताते हैं
उड़न खटोला फिर लेकर वो नीलगगन उड़ जाते हैं।
हाय मिला क्या-क्या जनता को,जुमलों में बतलायें क्या?  

 

इस प्रयास को आप अपने अनुसार और आकर्षक बनायेंगी, यह विश्वास है. मैं इस प्रयास में कितना सफल ठहरा हूँ यह रचनाकार और गुनीजन ही बता सकते हैं. सादर

 

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on February 8, 2017 at 4:50pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी   ,सविनय निवेदन है मेरी प्रथम कोशिश को भी समीक्षा के लायक समझ  कर इस रचना की त्रुटियां बताने का कष्ट कीजिये। सादर। 

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on February 7, 2017 at 4:57pm

आदरणीय गुणीजन  ,सविनय निवेदन है मेरी प्रथम कोशिश को समीक्षा के लायक समझ  कर इस रचना की त्रुटियां बताने का कष्ट कीजिये। सादर। 

Comment by अलका 'कृष्णांशी' on January 29, 2017 at 10:48pm

आदरणीय Rajesh di , रचना को समय देने और पसन्द करने के लिए बहुत धन्यवाद । सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 27, 2017 at 9:23pm

वाह्ह्ह वाह्ह बहुत सुंदर सारगर्भित प्रस्तुति .भ्रूण हत्या जैसे गंभीर मुद्दे से शुरू हुई स्वार्थी चालबाज आज की राजनीति के चलन पर सीधा प्रहार करती सुंदर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई आद० अलका जी 

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