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शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं
जंगल के भीतर
और जंगली बंदर निकल आए हैं
जंगल से शहर में, बस्तियों में....
बंदरों को अब नहीं भाते
जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल
उनके जी चढ़ गया है
चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद
आदमियों के हाथों से,
दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं
वे अपने पसंदीदा व्यंजन
इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले
शर्मीले बंदर
अब किटकिटाते हैं दाँत
कभी कभी गड़ा भी देते हैं
भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से
इन्सानों की सभ्य दुनियाँ में है बड़ी शिकायत
बंदरों ने चैन से जीना मुश्किल कर दिया है
दिन दहाड़े लूट ले रहे हैं
चिप्स, समोसे और कचोरियाँ
सुरक्षित नहीं बचे रास्ते
हलवाई की दुकान से घर तक के
सरकारें चिंतित हैं
वे बनाएगी योजना
और बंदर आ जाएंगे एक दिन
पुलिस की गोली के निशाने पर
शहर और बस्तियाँ शांत हो जाएंगी
और जंगल खामोश ।

(गाँव के सीधे सादे आदिवासियों के लिए जो नक्सली बन रहे हैं )

..... नीरज कुमार नीर ......

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Comment

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Comment by Neeraj Neer on February 5, 2016 at 8:31pm

आदरणीय सुशील जी बहुत धन्यवाद आपका ॥ 

Comment by Neeraj Neer on February 5, 2016 at 8:31pm

आदरणीया राहिला जी आपका बहुत बहुत आभार ....  

Comment by Sushil Sarna on February 5, 2016 at 1:49pm

सरकारें चिंतित हैं
वे बनाएगी योजना
और बंदर आ जाएंगे एक दिन
पुलिस की गोली के निशाने पर
शहर और बस्तियाँ शांत हो जाएंगी
और जंगल खामोश ।

वाह बहुत सुंदर आदरणीय नीर जी ... वर्तमान परिवर्तन को जीवंत करती आपकी इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by Rahila on February 5, 2016 at 1:48pm
आपकी रचना पहली बार पढ़ी।बेहद शानदार ढंग से आपने बहुत बड़ी समस्या सामने रख दी । बेहद प्रभावशाली लेखन बहुत बधाई आपको आदरणीय ।

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