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जीवन की पाठशाला (लघुकथा)

आगरा से लखनऊ का छ-सात घंटे का सफ़र | ट्रेन खचाखच भरी हुई थी, पर भला हो उस दलाल का,जिसने सौ रूपये ज्यादा लेकर सीट कन्फर्म करा दी थी | वरना सिविल सेवा परीक्षा देने जाना बड़ा भारी लग रहा था | दोनों ही सहेलियों ने गेट से लगी सीट पर धम्म से बैठ कब्ज़ा जमा लिया था | सामने फर्श पर सामान्य कद-काठी का शरीरधारी, किसी दूसरे ग्रह का प्राणी लग रहा था | मैला-कुचैला सा कम्बल अपने शरीर के चारो तरफ लपेटे बैठा था | रह-रह सुमी उसे हिकारत भरी नजर से देख लेती | और नाक-भौं बनाते हुए अपनी सहेली तनु के साथ चर्चा में तल्लीन हो जाती | बात रसोई से शुरू हो , राजनीति तक जा पहुँची थी |
अब तो दोनों सहेली एक दूजे पर कटाक्ष रूपी तीर छोड़ रही थीं | कभी तनु कटाक्ष से घायल, कभी सुमी तनु के मुख से निकली आग से रुई सी हुई जा रही थी |
तभी दोनों की चर्चा के बीच में एक तल्ख़ आवाज गूंजी |
"ये राजनीति के बंदे, किसी के कभी हुए, जो अब होंगे | आपस का प्रेम ऐसे क्यों किसी ऐसे के लिए गंवा रही हों, जो 'पानी में दीखता चाँद' सरीखा हैं | न वो शीतलता दें सकता, न रोशनी और न ही पकड़ में आएगा |"
दोनों अवाक सी, दीनहीन से उस व्यक्ति को देखती रह गयीं |
सुमी, ये सोच हतप्रभ थी, कि सामान्य से दिखने वाले लोग भी दार्शनिक सोच रखते हैं | अब सफ़र का बचाखुचा समय, 
चुप्पी साध, मुग्ध सी, सिर्फ सुन रही थीं दोनों | चार घंटे से चुपचाप बैठा व्यक्ति जब मुंह खोला तो चुप कहाँ हुआ| एक से बढ़कर एक फिलाॅसफी भरी उसकी बातें |
एकाएक सुमी पूछी "बाबा पढ़े कितना हो ?"
"पाठशाला में तो न गया, पर जीवन की पाठशाला बखूबी पढ़ी है |"
सुमी और तनु के बैग में रखी डिग्रियाँ, अब जैसे उन्हें ही मुंह चिढ़ा रही थीं |

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"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on November 21, 2015 at 6:18pm
यात्रा से बहुत बढ़िया कथानक उठाया है आपने और बेहतरीन प्रस्तुति है आपकी। ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाते हैं साधारण गंदे से दिखने वाले अनुभवी विद्वानों के। पूर्वाग्रह से कभी ग़लत धारणा नहीं बनाना चाहिए किसी के बारे में। लघु-कथा मानकों के संबंध में आदरणीय गुरूजन टिप्पणी करेंगे तो हमें मार्गदर्शन मिल सकेगा। लेकिन इस प्रवाहमय बढ़िया प्रस्तुति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीया सविता मिश्र जी।

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