1222---1222---1222-1222 |
|
सटक ले तू अभी मामू किधर खैरात करने का |
नहीं है बाटली फिर क्या इधर कू रात करने का |
|
पुअर है पण नहीं वाजिब उसे अब चोर बोले तुम |
न यूं रैपट लगा मामू कि पहले बात करने का |
|
मगज में कोई लोचा है मुहब्बत हो गई तुमको |
तुरत इकरार की खातिर उधर जज्बात करने का |
|
धरम के नाम, अक्खा दिन नवें ड्रामें करे नल्ला |
इसे बॉर्डर पे ले जाके, वहीं तैनात करने का |
|
उधम करता है जो हलकट भगाने का उसे भीड़ू |
सिटी का पीस वाला फिर अगर हालात करने का |
|
कोई शाणा करे लफड़ा, तो दे कण्टाप पे लाफ़ा |
कोई वांदा नहीं साला जिगर इस्पात करने का |
|
बहुत येड़ा हुआ बादल, सदाइच झोल करता रे |
अपुन बोला मेरे भगवन नहीं बरसात करने का |
|
बुरा टाइम भी हो तेरा मगर सब मामले सुलटा |
अगर लाइफ जरा राप्चिक नवीं औकात करने का |
|
|
|
------------------------------------------------------------ |
|
Comment
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है...
मज़ा आ गया...वाह!
मुम्बैया भाषा...टपोरी शैली... पर, अद्भुत प्रयोग हुआ है आ० मिथिलेश जी
बॉलीवुड के ज़रिये इस भाषा से आमजन सुपरिचित हो चुके हैं... साहित्य में चिंतनपरक सन्देश को एक वर्ग विशेष तक उन्ही की भाषा में पहुचाना, वो भी हँसते हँसते.. बहुत ही सार्थक उद्देश्य है.
अपनी शैली के कारण ये ग़ज़ल मिजाहिया होते हुए भी कथ्य का गाम्भीर्य लिए हुए है.. इस बिंदु विशेष पर आपको ढेरों ढेर बधाई
अद्भुत रचनाकर्म ! कहन में भाषाजन्य हास्य की छौंक ने मज़ा ला दिया !
आंचलिक भाषा में ग़ज़लें कहना कोई नयी बात नहीं है. अन्यान्य आंचलिक भाषाओं में ही नहीं, बम्बइया (अब मुम्बइया) भाषा में भी काव्य-प्रस्तुतियों का अपना इतिहास रहा है. सूर्यभानु गुप्त की ऐसी कुछ ’ग़ज़लें’ तो ’धर्मयुग’ जैसी पत्रिका में भी स्थान पा चुकी हैं. हालिया ग़ज़लकारों में मुझे नीरज गोस्वामी भाई का नाम अनायास स्मरण हो आता है जिन्होंंने मुम्बइया लहज़े को अपनी कुछ ग़ज़लों की भाषा बनाया है. उनसे साक्षात सुनने का भी अवसर मिला है और कहना न होगा वे सम्मेलन लूट ले जाते हैं.
आपकी यह ग़ज़ल न केवल भाषा के चुलबुलेपन के लिए याद रहेगी बल्कि यह भी याद रहेगा कि ऐसी ग़ज़ल में आपने कथ्य की गरिमा को नहीं गिरने दिया है. दिल से बधाई स्वीकारें, आदरणीय मिथिलेशजी.
देख रहा हूँ, आदरणीय समर कबीर साहब ने आपकी प्रस्तुति को ’हज़ल’ कहकर स्वीकारा है.
जहाँ तक मेरी जानकारी है, उसके अनुसार ’हज़ल’ सम्बोधन को स्वीकरने या न स्वीकारने के सवाल पर थोड़ा सचेत रहने की ज़रूरत है. मैं ग़ज़ल और अदब पर निर्विवाद एवं स्वयंसिद्ध हस्ताक्षर अयोध्या प्रसाद गोयलीय (शेरोसुखन, भाग १, पाठ - उर्दू शायरी पर एक नज़र) के हवाले से अपनी बात रखना चाहूँगा. आप ध्यान से पढें और स्वयं निर्णय लें, कि क्या अदब के इतिहास में ’हज़ल’ मात्र हास्य-ग़ज़ल का पर्याय रही है ?
इससे पूर्व तनिक और जानकारी - वस्तुतः ग़ज़ल एक विधा के तौर पर अपनी अदबी यात्रा के दौरान विभिन्न काल-खण्डों में कई-कई हाथों और वातावरणों से गुजरी है. जहाँ एक ओर ज़िन्दग़ी की जद्दोजहद को भोगते और उनसे जूझते हुए, तदनुरूप हर भावदशा को शब्दों में उतारते हुए ’ग़ालिब’ या ’सीमाब’ ऐसे तमाम गंभीर शाइर हुए हैं, जिनके कमाल से ग़ज़ल खिली और खुली है, तो चाटुकार दरबारियों के ख़ुशामदी बर्ताव के शाब्दिक होने का माध्यम भी यह विधा रही है, जिन्होंने शृंगार-भाव के नाम हर-हर-हर तरह की सीमा का अतिक्रमण किया है. उसी क्रम में ’रेख़्ती’, ’हिजो’ और ’हज़ल’ नाम के बवण्डरों और घृणास्पद उत्पात भी उर्दू अदब झेल चुका है.
रेख़्ती - ग़ज़ल जब आकार पा कर अपनी नवजवानी जी रही थी, माहौल विलासिता में डूबा हुआ था. अधिकांश उर्दू शाइरों की आजीविका के साधन दरबार या गद्दियाँ ही थीं. ईनाम के लोभ में ख़ुशामदाना कसीदे आम हो चले थे. विलासिता को भड़काऊ ढंग से उभारती हुई ग़ज़लें होने लगीं थीं. आगे चलकर तो ऐसी-ऐसी ग़ज़लें कही गयीं, जिनमें चाटुकारिता और एय्यरियों का समावेश तो था ही, बाज़ारू ज़ुबान में अप्राकृतिक व्यभिचार का जुगुप्साकारी बखान भी शुरू हो गया. इसका रूप इतना गिरा कि इसे ’रेख़्ती’ का नाम मिला, यानी ’हिंजड़ों की भाषा !
हिजो - बात यहीं नहीं रुकी, शाइर दरबारी वर्चस्व की मौखिक और शाब्दिक लड़ाई में एक-दूसरे पर खुल्लम-खुल्ला कीचड़ तक उछालने लगे, जिसका ढंग ऐसा हुआ कि भद्दी गालियाँ शरमा जायें ! दो शाइरों के बीच ’हिजो’ में लम्बे-लम्बे सवाल-ज़वाब चलते और नव्वाब और गद्दीनशीं ज़मींदार चटखारे ले ले कर उसका मज़ा लेते. जो कला शब्दों से प्रकृति के सौंदर्य को कविता-विधा में भर देने केलिए अपनायी गयी थी, गोयलीयजी कहते हैं, उसका सदुपयोग (?) परस्पर फ़ब्तियाँ कसने में होने लगा. आगे चल कर तो ’हिजो’ के नाम पर घिनौनी गाली-गलौच ही होने लगी और भले संस्कारों के शाइर इस विधा से पूरी तरह से अलग हो गये.
हज़ल - इसके बारे में अपनी ओर से कुछ कहने की बजाय हम गोयलीयजी को ही उद्धृत करना उचित समझते हैं - रेख़्ती और हिजो पर ही सब्र नहीं हुआ, रंगीन मिज़ाज़ोंने ’हज़ल’ का भी ’आविष्कार’ कर डाला, जिसमें स्त्री-पुरुष के गुह्य अंगों का खुल्लमखुला उल्लेख और मैथुन का विस्तार के साथ अश्लील-से-अश्लील शब्दों में वर्णन किया. इन हज़लियात में वह कीचड़ उछाली गयी है कि हया और ग़ैरत की आँखें भी नीची हो जाती हैं. गोयलीयजी ने इस विन्दु पर फुटनोट देकर कहते हैं - हज़ल का एक भी उदहरण देने में हम असमर्थ हैं. इसे सुनकर निर्लज्जता भी दुम दबाकर भाग जाती है.
अब, मिथिलेश भाई, आप स्वयं निर्णय लें कि किसी ’हास्य-ग़ज़ल’ को ’हज़ल’ कहना कितना उचित और प्रासंगिक है !
हम मात्र शाब्दिक रूप से जानकर न हों बल्कि इतिहास के पन्ने भी पलट कर देखते रहे हैं कि क्या नामकरण और सम्बोधन सही भी हो पा रहा है ! हास्य-ग़ज़ल को ’हज़ल’ कहने देने के ऊपर एक वर्ग में अनायास-सी आम स्वीकार्यता बन तो जाती है. लेकिन ’हज़ल’ होती क्या है इसे जान लिया जाय तो जीभ और कान दोनों लाल हुए छन्ना उठते हैं ! है न ?
शुभेच्छाएँ
आदरणीया प्रतिभा जी, हज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार
आदरणीया राजेश दीदी, , रचना पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त भी हुआ और मुग्ध भी. आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया पर झूम गया हूँ. अपने इस प्रयास को आपकी प्रतिक्रिया में सफल होते देखना दिल को भा गया. मेरा लिखना सार्थक हो गया. आपका हृदय से आभारी हूँ. सादर
आदरणीया कांता जी, आपका मुखर अनुमोदन पाकर मुग्ध हूँ. इस प्रयोग को आपकी सकारात्मक और आत्मीय प्रतिक्रिया मिल गई, लिखना सार्थक हो गया, आपका हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय समर कबीर जी, रचना पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. कोई भी नया प्रयोग करने के साथ मुझ जैसे नए अभ्यासी के भीतर एक भय भी चलते रहता है. आपका अनुमोदन पाकर संतोष मिला है. मेरे लिए ये जानकारी भी नई है कि इस सिन्फ़-ए-सुख़न को (विधा) उर्दू में "हज़ल" कहते हैं. आपका हार्दिक आभार. एक उस्ताद से दाद पाना मेरे लिए किसी दुआ के कुबूल होने से कम नहीं है. नमन
धरम के नाम, अक्खा दिन नवें ड्रामें करे नल्ला |
|||
इसे बॉर्डर पे ले जाके, वहीं तैनात करने का------हाहाहा किस किस को भेज रहे हो भैया ,यहाँ तो तांता लगा है बाबाओं के साथ माँ भी लाइन में हैं :))))))
|
|||
|
वाह वाह वाह मिथिलेश भैया निःशब्द हूँ आपकी इस हज़ल पर जितनी तारीफ करूँ कम ही होगी सच में मजा आ गया |दिल से ढेरों दाद क़ुबूल करो भैया
लघुकथा गोष्ठी और उसके तंज- मिजाजों से भरा माहौल , दिल घबरा सा जाता है कई बार उन शब्दों के धार से । जब-जब दिल को जरा सी ताजगी की फुहार की जरूरत होती है ,,मै दौड जाती हूँ आपके इस मजाहिया गजल पर । ये गजल दिल को इतनी चैनो -करार देती है ,जैसे तप्त रेगिस्तानी धुप से बेचैन से मन को नींबू की शिकंजी ! ))))
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online