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ग़ज़ल- लहरें पतवार के संग किलकती रहीं - सुलभ

बहर - 212 212 212 212

लहरें पतवार के संग किलकती रहीं
मन के पाँवों में पायल सी बजती रहीं

पालकी बैठ सपने गए साथ में
रास्ते भर उमंगें लरजती रहीं

शोखियों की सहेली बनीं चूडि़याँ
लाजवन्ती निगाहें बरजती रहीं

सपनों में रातरानी ने घर कर लिया
कल्पनायें दुल्हन बन के सजती रहीं

देह भर में खिलीं क्यारियाँ-क्यारियाँ
चाहतें ओढ़ घूंघट मचलती रहीं

तितलियों सी निगाहें उड़ीं दूर तक
श्वास-प्रश्वास लय पर थिरकती रहीं

वक्ष के आम्रवन बौर से भर गए
धड़कनें कोयलों सी कुहुकती रहीं

पुष्प सस्मित अधर-दल पे बिछते रहे
खुश्बुयें शिशु सी आंचल को भरती रहीं

मौलिक एवं अप्रकाशित
-------- सुलभ अग्निहोत्री

Views: 582

Comment

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Comment by Sulabh Agnihotri on August 13, 2015 at 3:02pm

बहुत-बहुत आभार Shree Sunil जी !

Comment by shree suneel on August 12, 2015 at 6:32pm
बड़ी हीं मनभावन ग़ज़ल हुई है आदरणीय सुलभ अग्निहोत्री जी. हार्दिक हार्दिक बधाई आपको इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल पर.
Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 6:22pm

बहुत-बहुत आभार Ravi Shukla जी !
लहरें पतवार के सँग किलकती रहीं - संग नहीं सँग पढ़ें
चलिसे रातरानी ने ख्वाबों में घर कर लिया’ किए लेते हैं

Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 5:22pm

बहुत-बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी !

Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 5:21pm

बहुत-बहुत आभार आदरणीय laxman dhami जी !

Comment by Sulabh Agnihotri on August 12, 2015 at 5:20pm

बहुत-बहुत आभार आदरणीय गिरिराज भंडारी जी !

Comment by Ravi Shukla on August 12, 2015 at 12:09pm

आरणीय सुलभ जी ग़ज़ल अच्‍छी हुई है बधाई

हमें पढने में दो जगह मात्रा गिराने के बाद भी असुविधा हो रही है

लहरें पतवार के संग किलकती रहीं
मन के पाँवों में पायल सी बजती रहीं

सपनों में रातरानी ने घर कर लिया .......///  रात रानी ने ख्‍बाबों में घर क‍र लिया ////से कुछ सुविधा होती  है  ।
कल्पनायें दुल्हन बन के सजती रहीं

बाद के चार शेर में आपका परिचित अंदाज़ हिन्‍दी के सुन्‍दर शब्‍दों का चित्रण दिख रहा है

बधाई स्‍वीकार करें


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 11:58am

ताजगी का अहसास कराती बहुत ही ताज़ा ग़ज़ल है आपकी. एक तो ये आहंगखेज़ बह्र और उसपर आपकी कहन ... वाह 

आदरणीय सुलभ जी इस शानदार ग़ज़ल के लिए शेर दर शेर दाद हाज़िर है.

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2015 at 11:34am

देह भर में खिलीं क्यारियाँ-क्यारियाँ
चाहतें ओढ़ घूंघट मचलती रहीं

आ० सुलभ भाई इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 12, 2015 at 8:02am

शोखियों की सहेली बनीं चूडि़याँ
लाजवन्ती निगाहें बरजती रहीं  -- क्या बात है , आदरणीय ग़ज़ल के लिये और इस शे र के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

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