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निर्माताओं से मुलाक़ात (लघु कथा)

वो मुझे साथ लेकर गया, उसे चुपचाप इंसान ढूंढना था|

सबसे पहले उसने मिलाया एक नामी शिक्षक से, जो बात करने में तेज़ था, लेकिन खुद नकल कर के उत्तीर्ण होता था|

फिर उसने मिलाया एक बड़े चिकित्सक से, जो अपनी चिकित्सा की पद्धति को सबसे अच्छा कहता और बाकी को बुरा|

फिर मिलाया तीन भिखारीयों से, जो अपने धर्म का हवाला देकर भीख मांगते थे और रोज़ रात को खुदके परिवार वालों को ही नशे में मारते | उनमें से एक का नाम भीखू था, दूसरे का प्रवचन और तीसरे का नेता|

आखिर में मिलाया एक लाश से, वो खुद तो चुप थी, लेकिन उसके घर के लोगों का क्रन्दन बहुत तीव्र था, हालाँकि उनके मन में धन का हिसाब चल रहा था|

उसने आखिरकार चुप्पी तोड़ी, "ऐसा लगता है कि इंसान को मैं तत्वों से नहीं दूसरों के शब्दों से बना रहा हूँ|"

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on July 16, 2015 at 9:51pm

इस लघुकथा में इंगितों के माध्यम से इंसान के मूल व्यवहार और व्यावहारिक व्यवहार के बीच का ढंग से अन्तर बताया गया है. सुगढ़ प्रयास केलिए हार्दिक बधाई, आदरणीय चंद्रेशभाई.

Comment by विनय कुमार on July 9, 2015 at 1:57pm

बहुत बेहतरीन लघुकथा आदरणीय चंद्रेश जी , गहरे अर्थों वाली इस लघुकथा के लिए बधाई कबूल कीजिये ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 7, 2015 at 11:28am

अति सुन्दर !! कथा के लिये हार्दिक बधाई

Comment by kanta roy on July 7, 2015 at 9:16am
इंसान का जन्म भले ही पाँच तत्वों से ही होता है लेकिन जन्म के बाद धीरे - धीरे वो पँच तत्व कहीं जैसे विलीन हो नये इंसानी विकारों के नये तत्वों में समाहित हो जाते है । लोभ , मोह , इर्ष्या , द्वेष भाव की मिट्टी हमें विलीन कर लेते है और हम इसी के प्रतिरूप बन धरती पर जबतक रहते है विचरण करते है । इसलिए तत्व नहीं हम इंसान को शब्दों में ही तलाशने लगते है । बेहद गहरी चिंतन की ओर ले जाती है यह लघुकथा । इस सार्थक रचना के लिए बधाई आपको तहे दिल से चंद्रेश जी
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on July 6, 2015 at 8:43pm

"ऐसा लगता है कि इंसान को मैं तत्वों से नहीं दूसरों के शब्दों से बना रहा हूँ|"

बहुत ही सुन्दर कटाक्ष !


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 6, 2015 at 4:07pm

आदरणीय चंद्रेश जी बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. 

इंसान बनता तो पांच तत्वों से ही है पर समाज नामक इकाई में सम्मिलित होते ही दूसरों के उसके विषय में क्या विचार है यह उसके कृतित्व  को निर्धारित करते है यद्यपि व्यक्तित्व का निर्धारण भी किया जाता है किन्तु वह वास्तविक न होकर उनकी धारणाओं और विचारों पर आधारित होता है. अपने लघुकथा में सन्दर्भ को बड़ी चतुराई से अभिव्यक्त किया है. 

बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर 

Comment by Pari M Shlok on July 6, 2015 at 2:37pm
बहुत सुन्दर लघुकथा
Comment by Shyam Narain Verma on July 6, 2015 at 12:49pm

सुन्दर लघु कथा के लिये बधाई ।

सादर 

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