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बन्धन (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

“दोनो पैरों के अँगूठों में बन्धी रस्सी भी खोल दो, चिता पर कोई भी गाँठ या बन्धन नहीं होता..”
“चिता पर सारे बन्धन खत्म हो जाते हैं” - किसी और ने कहा.

सुनते ही राकेश पत्नी प्रिया और उसके बीच के सबसे बडे़ बन्धन एक साल के बेटे को अपने सीने से लगाये प्रिया के निर्जीव शरीर को चुपचाप देखता हुआ फिर से फ़फ़क पड़ा.
*************************
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Rahul Dangi Panchal on July 2, 2015 at 8:02am
बहुत सटीक वाह
Comment by kanta roy on July 1, 2015 at 9:30pm
चिता पर जाने वाले के लिए तो सच में कोई बंधन नहीं होता है । वो समस्त जीवन बंधन से मुक्त होता है लेकिन उसके बंधन में बंधे जीवन से मुक्त होना क्या संभव होगा ....? बेहद मार्मिक भाव लिये बहुत ही सुंदर और सार्थक लघुकथा लिखी है आपने आदरणीय शुभ्रांशु जी

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