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गजल-मेरा मन मेरे सामने आइना है

मेरा मन मेरे सामने आइना है
मेरा आज खुद से हुआ सामना है
तुम्हारे मिलन में मुझे फैलना है
मगर किसलिये आज मन अनमना है
तुम्हारी खुशी में हमारी खुशी है
खुशी से खुशी को हमें बाँटना है
महब्बत पनपती नहीं जकडनों में
ये रस्मों का जंगल हमें तोड़ना है
तुम्हारी महब्बत भी मंजिल थी लेकिन
अभी जिंदगी है अभी दौड़ना है

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by सूबे सिंह सुजान on July 22, 2015 at 12:02pm
जी,काफिया में इना,और अना होकर
बहुत बड़ी अनदेखी हो गई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 1, 2015 at 6:34pm

आदरणीय सूबे सिह भाई , आप तो अनुभवी गज़ल कार हैं , बातें अच्छी कही है ! आ. श्रीवास्तव जी की बात से सहमत हूँ , काफिया एक बार और देख लीजिये ॥

Comment by Rahul Dangi Panchal on June 29, 2015 at 3:56pm
बहुत ही सुन्दर भावों से सुसज्जित गजल कही है आदरणीय सुजाीन ज। सभी मिसरों मे काफिया अना ठहरता है अत: पहले मिसरे केफाकिया सुधार ले। बहर भी लिख दिजिए।
Comment by मनोज अहसास on June 28, 2015 at 8:16pm
सतत प्रयासरत रहे
सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 28, 2015 at 12:48pm

मतले में ही  काफिया  रदीफ़ सही नहीं लगता

उला  में--------------  इ  ना है

सानी में -------------- अ ना है ------------------ सादर  .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 4:56am

बह्र न होने से ग़ज़ल का लुत्फ़ नहीं ले पायेंगे आदरणीय  सूबे सिंह सुजान जी 

एक निवेदन कृपया बह्र का उल्लेख कर दे 

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