22/22/22/22/22/2 (सभी कॉम्बिनेशन्स)
दिल के ओहदेदारों का अब क्या करिये.
बचपन के उन यारों का अब क्या करिये.
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तुम कब तुम थे- मैं कब मैं, वो कहानी थी
उन मुर्दा क़िरदारों का अब क्या करिये.
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राजमहल था जिस्म, ये दिल था शाह कभी
इन वीरां दरबारों का अब क्या करिये.
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मान गए वो आख़िर में जब बात अपनी
पहले के इन्कारों का अब क्या करिये.
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उसके क़दमों पे धर आए सर ही जब
फिर महँगी दस्तारों का अब क्या करिये.
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हम ही ने सर पर अपने बैठाया है
जमहूरी सरकारों का अब क्या करिये.
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झूठ को सच औ सच को झूठ बनाते हैं
डरे बिके अखबारों का अब क्या करिये.
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सदियों से इंसानी जान की दुश्मन हैं
प्राचीरों मीनारों का अब क्या करिये.
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अबकी बारिश में घर जाने क्या होगा
उन बूढी दीवारों का अब क्या करिये.
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अपनों ही ने छोड़ दिया है जब हमको
गलियों का चौबारों का अब क्या करिये.
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‘नूर’ कलंदर सी मस्ती में रहता है
उस जैसे खुद्दारों का अब क्या करिये.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
हमेशा की तरह आपकी ये ग़ज़ल भी बहुत खूब लगी भाई जी , हर एक शे र के लिये हार्दिक बधाई आपको ॥
आदरणीय नूर जी हर शेर उम्दा है ..शेर नूर के सभी बहुत हैं उम्दा जब ..किसी एक की बात यहाँ अब क्या करिए ...मन प्रसन्न हो जाता है ..आपकी रचनाधर्मिता को नमन सादर
शुक्रिया आ. मोहन सेठी जी
शुक्रिया आ. मिथिलेश जी
शुक्रिया आ. जितेन्द्र भाई
शुक्रिया आ. डॉ विजय शंकर साहब
शुक्रिया आ. नरेन्द्र सिंह जी
शुक्रिया आ. समर कबीर साहब
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