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ग़ज़ल नूर- चाहता था सँवरना ताजमहल

२१२२/१२१२/२२ (११२)
याद हम को तभी ख़ुदा आया

जब कोई सख्त मरहला आया
.
उम्र भर सोचते रहे तुझ को
अब कहीं जा के सोचना आया
.
और करता भी क्या उसे रखकर 
साथ ख़त ही के, दिल बहा आया.
.
डूबने कब दिया अनाओं ने 
तर्क करते ही डूबना आया. 
.
चाहता था सँवरना ताजमहल
मैं वहाँ आईना लगा आया.
.
तू उफ़क़ अपना देख ले आकर
मैं तेरा आसमां झुका आया.
.
सोचता है अगरचे कब्र में है    
‘नूर’ दुनिया में ख़्वाह-मख़ाह आया
.

निलेश 'नूर'
मौलिक अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 3, 2015 at 1:54pm

शुक्रिया आ. मोहन जी .. आप सब की दाद से उत्साहवर्धन होता है 
स्नेह बनाए रखें 
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 3, 2015 at 1:53pm

शुक्रिया आ. श्री सुनील जी 

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 3, 2015 at 11:37am

आदरणीय नूर जी बहुत बहुत बधाई एक और बेहतरीन ग़ज़ल के लिये ...सादर (हर बेहतरीन ग़ज़ल नूर ही कहे  ....तो में ख़्वाह-मख़ाह आया )

Comment by shree suneel on May 3, 2015 at 10:15am
क्याया बात! उम्दा! शानदार.. ख़ूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय निलेश जी.
मज़ा आ गया..
चाहता था सँवरना ताजमहल
मैं वहाँ आईना लगा आया.
.
तू उफ़क़ अपना देख ले आकर
मैं तेरा आसमां झुका आया.
क्या कहने.. बधाईयाँ
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 10:31pm

शुक्रिया आ. मिथिलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 10:31pm

शुक्रिया डॉ आशुतोष जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 2, 2015 at 9:46pm

आदरणीय नीलेश जी लाजबाब ग़ज़ल हुई  है ..आपकी ग़ज़लों का कमाल देखते ही बनता है ,इस ग़ज़ल के लिए दिल से  बधाई स्वीकार करें....

सादर

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 2, 2015 at 9:16pm

आदरणीय नूर जी लाजबाब ग़ज़ल है ..आपकी ग़ज़लों से हर दिन कुछ न कुछ नया सीखने कोके लिए मिल रहा है ,इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 6:47pm

शुक्रिया आ. गिरिराज जी ...
शायद ग़ज़ल मुझे कह रही है ..

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 2, 2015 at 6:46pm

शुक्रिया आ. महिमा जी 

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