डरना हो तो बुरे कर्म से , डरना सीखो मतवाले !
उनको चैन कभी ना मिलता , जिनके होते मन काले !!
तोल सको तो पहले तोलो, बिन तोले कुछ मत बोलो !
मौन रहो जितना संभव हो , कम बोलो मीठा बोलो !!
खाना हो तो गम को खाओ, आंसू पीकर खुश होना !
गम सहने की चीज है बंधू , अपना गम न कहीं रोना !!
जला सको तो अहं जला दो , वरना अहं जला देगा !
हिरण्यकश्यप रावण के सम, तुमको भी मरवा देगा !!
दिखा सको तो राह दिखाओ , उसको जो पथ में भूला !
भगत सिंह ने हमें जगाया , खुद था फांसी पर झूला !!
मरना हो तो मरो देशहित, मरने से मत घबराना !
रोज रोज तिल तिल मरने से ,अच्छा इक दिन मर जाना !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
सुंदर रचना के लिए बहुत बधाई सादर |
आदरणीय हरिप्रकाशजी, आपकी मेहनत रंग ला रही है. कथ्य और संप्रेषणीयता के हिसाब से बहुत ही सार्थक प्रस्तुति हुई है. शिल्प के लिहाज से जो कुछ मैं कहना चाहता था, आदरणीय मिथिलेश भाईजी ने स्पष्ट कर दिया है. कुकुभ छन्द का पदान्त कम-से-कम यगण (यमाता, ।ऽऽ, १२२, लघु-गुरु-गुरु) से अवश्य हो.
प्रस्तुति पर हार्दिक शुभकामनाएँ
वाह वाह वाह आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी गज़ब कर दिया । कुकुभ छंद की अदभुत छटा बिखेरी है। सभी पद बहुत भावपूर्ण और सुन्दर बने है। बस दूसरे और तीसरें पद में तुकांत/पदांत लघु गुरु हो गया है जिसे गुरु गुरु करना होगा।
सुखी रहो, नहीं कहों, भूल गया, झूल गया, मरना और डरना
इसे आदरणीय सौरभ सर ने कुछ ऐसे समझाया है- " दो लघु द्विकल अवश्य बन सकते हैं लेकिन गुरु मात्रिकता का स्थानापन्न नहीं हो सकते. कुकुभ छन्द में पदान्त दो गुरुओं से होना तय है. न कि दो लघुओं के द्विकल से जो समुच्चय में दीर्घ मात्रिकता आभास देते हैं. "
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए दिल से बधाई । छंद को साधने के लिए विशेष बधाई...
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी प्रभावी पंक्तियाँ .....बधाई
जला सको तो अहं जला दो , वरना अहं जला देगा !
हिरण्यकश्यप रावण के सम, तुमको भी मरवा देगा !!
मरना हो तो मरो देशहित, मरने से काहे डरना !
रोज रोज तिल तिल मरने से ,अच्छा है एक दिन मरना !!
सुंदर भावों से परिपूर्ण रचना पर बधाई |
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