राष्ट्रधर्म ही सार है, राष्ट्रधर्म ही मूल ,
लेशमात्र सन्देह भी, कर देगा सब धूल !
रहे राष्ट्र के प्यार में, मानव का हर कृत्य,
रोम–रोम में राष्ट्रहित, क्या अफसर क्या भृत्य !
राष्ट्रघात या द्रोह से, जग में प्रलय दिखाय,
राष्ट्रप्रेम वह शक्ति है, विश्वविजय हो जाय !
राष्ट्र इतर अस्तित्व सब, समझो है बेजान ,
राष्ट्र रहे तो सब रहे, आन बान औ शान !
लहू बहा दो राष्ट्रहित, और बहा दो स्वेद,
प्राण जाय गर राष्ट्रहित, तो भी क्या है खेद !
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय सौरभ सर , आपकी प्रेरणा से प्रयास कर रहा हूँ , रचना पर आपने दृष्टी डाली ,उत्साहवर्धन किया इसके लिए आपका आभार , साथ ही जो कमियाँ इंगित हुई हैं उन पर पुनः प्रयास करता हूँ ! सादर
आदरणीय हरि प्रकाशजी,
आपकी छन्दबद्ध पंक्तियाँ आश्वस्त करती हैं. आपका प्रयास न केवल सकारात्मक है बल्कि विन्दुवत भी है. यह तथ्य अधिक संतुष्ट करता हुआ है.
इन दोहों के लिए हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें, आदरणीय.
निम्नलिखित दोहे पर विशेष साधुवाद -
रहे राष्ट्र के प्यार में, मानव का हर कृत्य,
रोम–रोम में राष्ट्रहित, क्या अफसर क्या भृत्य !
किन्तु,
राष्ट्रघात और द्रोह से, जग में प्रलय दिखाए,
राष्ट्रप्रेम वह शक्ति है, विश्वविजय हो जाए !
उपर्युक्त दोहा शब्दों की अक्षरियों के कारण अन्यथा हो गया है. यहाँ और की जगह औ’ तथा दिखाए और जाए की जगह दिखाय तथा जाय किया जा सक्ता है. आपका कहना है भी यही. लेकिन जग में प्रलय दिखाय क्या सही संप्रेषण हो पाया है ?
सादर
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