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ये कैसी महफिल में मुझको ले लाया
हर कोई लगता है गुमसुम, थर्राया
सब रस्ते इन शहरों के बातूनी हैं
गाँवों की गलियों को सब ने फुसलाया
साहिल साहिल बात चली है लहरों में
तूफ़ाँ ने जब तोड़ी कश्ती, इतराया
क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?
धोते ही हाथों को पानी गँदलाया
दोनों कूदे संग प्रेम की खाई में
प्रश्न कहाँ तब, किसने किसको बहकाया
बाग़ों, फूलों, पगडंडी की बातें कर
धुयें उगलती चिमनी से मन उकताया
झूठ बहुत वाचाल मिला जो झूठों में
सच के आगे वही झूठ था हकलाया
धीरे धीरे यादें सब मिट जायेंगी
जैसे वक़्त हुआ तो माजी धुँधलाया
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
अत्यंत सुन्दर गजल पर आपको हार्दिक बधाई आ.गिरिराज सर ........
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि कोई भी कभी मुकम्मल नहीं हो पाता चाहे ज़िन्दगी भर सीखते रहे । विचार , अनुभव और भाव अपने अपने हो सकते हैं , अलग अलग, पर विधा और व्याकरण तो एक ही मान्य होना चाहिये , जिसमे गलती की गुंजाइश हमेशा रहती है ॥ आप निःसंकोच ग़लतियाँ बताया कीजिये , मै आपका जीवन भर सीखने वाला आपका अनुज हूँ . मै कभी मुकम्मल नहीं हो सकता । पूर्ण मै केवल ईश्वर को मानता हूँ ॥ सादर निवेदन ॥
आदरणीय श्याम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभारी हूँ ।
नहीं अनुज
कोई ऐसी बात नहीं i दरअसल आप इतने मुकम्मिल गजलकार है कि मुझे सोचना पड़ता है कि मेरी टीप तो गलत नहीं है i सादर i
बहुत बढ़िया गजल बधाई आपको । |
आदरणीय बड़े भाई , मुझे हार्दिक दुख हुआ ,और शर्मिन्दगी भी , कि मेरे किसी व्यवहार के कारण आपको मेरी ही गलती बताने के लिये अपने अनुज से क्षमा याचना करनी पड़ी । सच में मेरी ज़िन्दगी का ये दुखद क्षण है । मैं अपने उस व्यवाहार को याद नहीं कर पा रहा हूँ , पर कुछ न कुछ तो किया ही होउँगा ऐसा । जाने अनजाने में सही अगर आपका दिल दुखया हो तो मै आपसे क्षमा मांगता हूँ । ग़ज़ल पर आपकी स्नेह मयी उपस्थिति के लिये औस सलाह के लिये आपका आभारी हूँ ।
आ 0 अनुज
आपकी गजल पर कुछ कहने से डर लगता है पर जो मन में आया है वह कहना भी जरूरी है
क्या जज़्बा हाथों से बहते रहता है ?--- क्या जज्बा हाथो से बहता रहता है
धोते ही हाथों को पानी गँदलाया हाथों को धोते ही पानी गंद्लाया
छमा याचना सहित i सादर i
आदरणीय परि एम श्लोक भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
आदरणीय विजय भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ॥
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