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पहन रख पैरहन, उरियानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कि बद को भी, कभी बदनामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
फसादी हो अगर, तो बोलियाँ अच्छी नहीं लगतीं
वहीं बेवक़्त की खामोशियाँ अच्छी नहीं लगतीं
खुला आकाश हो सबका ,परों मे ताब हो सबके
कफस अंदर की ये आज़ादियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर
कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
चला आया है जुगनू देखिये फिर रोशनी ले कर
इसे तारीक़ हो गर बस्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं
ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों
मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये
कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं
अगर हो ताब ,हो जिगरा तो बोलो ज़ोर से यारों
ये पीछे पीठ, कानाफूसियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है
"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
बहुत सुन्दर गजल हुयी है सर वाहहहहहह........
भरम रख़्ख़ें वे मौसम का , कहे कोई उन्हें जा कर
कभी बे वक़्त छाई बदलियाँ, अच्छी नहीं लगतीं
आदरणीय गिरिराज सर बहुत सुन्दर रचना ......
ये जीवन है , यहाँ पर जीत भी है हार भी यारों
मगर हर वक़्त की नाकामियाँ अच्छी नहीं लगतीं
उमर पाके बुज़ुर्गों सी , कहोगे तुम भी इक दिन ये
कि सच हो बात, नाफरमानियाँ अच्छी नहीं लगतीं.......हार्दिक बधाई आपको ! सादर
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी बड़ी ही सुंदर गज़ल उतारी है आपने जितना खरा शिल्प भाव भी उतना ही खरा है -
प्रिय शेर -
अगर हो ताब ,हो जिगरा तो बोलो ज़ोर से यारों
ये पीछे पीठ, कानाफूसियाँ अच्छी नहीं लगतीं
कटें पतवार से लहरें मज़ा कुछ और आता है
"हवा के रुख पे चलती किश्तियाँ अच्छी नहीं लगतीं"
बहुत बहुत बधाई आपको
सादर नमन !
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