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एक बूढ़ी माँ अकेली रह गई - लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर '

2122    2122    212

*********************
बस गया है लाल बाहर क्या करे
हो  गया है  खेत  बंजर क्या करे

***
एक बूढ़ी माँ  अकेली  रह  गई
काटने को  दौड़ता घर क्या करे

***
चाँद  लौटेगा  नहीं   अब,  है  पता
रात भर रोकर भी अम्बर क्या करे

***
ठोकरें  खाना  खिलाना भाग्य में
राह  का  टूटा वो पत्थर क्या करे

***
रीत  तो थी, जिंदगी भर साथ की
दे गया धोखा जो सहचर क्या करे

***
हाथ   आयी   करवटों  की  बेबसी
मखमली है पास बिस्तर क्या करे

***
है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ  यादों  में  बसा  घर क्या करे

रचना - 5 जनवरी 15
मौलिक और अप्रकाशित

Views: 602

Comment

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Comment by somesh kumar on January 14, 2015 at 3:18pm

सभी अशआर अच्छे लगे ,बहुत-बहुत बधाई |


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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 14, 2015 at 2:20pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सभी अशआर अच्छे लगें, बहुत बहुत बधाई.

Comment by aman kumar on January 14, 2015 at 12:55pm

है ‘मुसाफिर’ भाग्य में केवल सफर
सिर्फ  यादों  में  बसा  घर क्या करे ,

सच है भाई दुनिया में हर कोई मुसाफिर ही तो है ...सुंदर भाव 

Comment by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 12:39pm

सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय laxman dhami  जी !

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