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122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 (16-रुक्नी)

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गुजारिश नहीं है, नवाजिश नहीं है, इज़ाज़त नहीं है, नसीहत नहीं है

ज़माना हुआ है बड़ा बेमुरव्वत,  किसी को किसी की जरूरत नहीं है

 

किनारे दिखाई नहीं दे रहें है, चलो किश्तियों के जनाज़े उठा लें,

यहाँ आप से है समंदर परेशाँ, यहाँ उस तरह की निजामत नहीं है

 

जमीं आसमां को सदा दे न पाई, उठे बादलों को बरसना सिखा दे,

ज़रा जोर से बोल दे आसमां को, जमीं को कभी ये इज़ाज़त नहीं है

 

भुलाने न देंगे पुरानी कहानी, सुनाने चले बस इबारत नई हम,  

हमारी कहन है ज़रा सी निराली, मगर ये हमारी बगावत नहीं है

 

चलो आज बच्चे बने देख ले हम, हंसी है बला क्या, खुशी है बला क्या,

खुदा ने बनाया जहां ये निराला, यहाँ दिल दुखाना रिवायत नहीं है

 

बदलता ज़माना, बदलते मरासिम, बदलती हकीकत, बदलते इरादे,

हवा भी नई है फिजा भी नई है, मगर ज़िन्दगी की ज़मानत नहीं है

 

ज़रा दरमियाँ दूरियों को मिटा के, बचा ले मरासिम हमीं आज लेकिन,

हुनर वो नहीं है, अदा वो नहीं है, सलीका नहीं वो नजाकत नहीं है

 

कहीं बुतपरस्ती, कहीं है जियारत, तिजारत हुई है कहीं मजहबों की,

शिवाला बहुत है, मिली मस्जिदें भी, मगर आदमी में अकीदत नहीं है

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(मौलिक व अप्रकाशित)    © मिथिलेश वामनकर 
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बह्र-ए-मुतक़ारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम (16-रुक्नी)

अर्कान – फऊलुन/फऊलुन/फऊलुन/फऊलुन/फऊलुन/फऊलुन/फऊलुन/फऊलुन

वज़्न –   122 / 122 / 122 / 122 / 122 / 122 / 122 / 122

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Comment

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Comment by Lalit Nageshwar Maharaj on May 16, 2016 at 4:14pm

भाई साहब, बहुत ही क्रांतिकारी रचना है. शुक्रिया.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on June 29, 2015 at 3:30am

हार्दिक आभार आदरणीय विनय जी 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on June 29, 2015 at 3:30am

आदरणीय आशुतोष जी इस ग़ज़ल पर मुझे बहुत मार्गदर्शन मिला गुनीजनों से 

साथ ही यह सीख भी मिली कि अरूज़ की किताबों और जानकारियों के पीछे न भागे ...बल्कि ओबीओ पर ही उपलब्ध जानकारी को गहनता से पढ़े अध्ययन करें 

मैंने भी पाया कि किसी भी अरूज़ की किताब में पूरी जानकारी नहीं है बल्कि तिलक सर और वीनस भाई जी ने उन किताबों से ज्यादा विस्तृत जानकारी मंच पर उपलब्ध करा दी है.

इस कारण मैंने आ. तिलक सर से कोई ई मेल नहीं मंगाया 

सादर 

Comment by विनय कुमार on June 28, 2015 at 3:00pm

// कहीं बुतपरस्ती, कहीं है जियारत, तिजारत हुई है कहीं मजहबों की,
शिवाला बहुत है, मिली मस्जिदें भी, मगर आदमी में अकीदत नहीं है// , वाह , वाह । बहुत उम्दा ग़ज़ल , दिली दाद क़ुबूल करें आदरणीय.

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 28, 2015 at 2:53pm

आदरणीय आपकी प्रयोगधर्मिता को सलाम ..आप तमाम बहर पर प्रयास कर रहे है आपकी रचनाओं पर प्रतिक्रियाओ से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है // बह्र के सम्बन्ध में तिलक सर ने आपको यदि कोई मेल जैसा उन्होंने लिखा था , भेजा हो तो मुझे अग्रसारित करने का कष्ट करें सादर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2015 at 5:43am

बह्र-ए-मुतक़ारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम (16-रुक्नी) का सही नामकरण क्या होगा ? आदरणीय गुणीजनों से निवेदन है कि मार्गदर्शन देने की कृपा करे.


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 8:30pm

आदरणीय अनुराग भाई हर ग़ज़ल के साथ बह्र, अर्कान और  वज़्न लिख रहा हूँ कि उसमें सुधार हो। सही नाम आप ही बता दीजिये । मेरा ग़ज़ल से सम्बंधित ज्ञान इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी आधारित है। मुसम्मन के आगे बह्र का नामकरण मुझे नहीं आता इसलिए 16 रुक्नी लिखता हूँ आदरणीय अनुराग भाई सादर


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2015 at 9:30am
आदरणीय अनुराग भाई हर ग़ज़ल के साथ बह्र, अर्कान और  वज़्न लिख रहा हूँ कि उसमें सुधार हो। सही नाम आप ही बता दीजिये । मेरा ग़ज़ल से सम्बंधित ज्ञान इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी आधारित है।
Comment by Anurag Prateek on January 2, 2015 at 8:19am
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुइज़ाफ़ी मुसम्मन सालिम (16-रुक्नी)—लेकिन ये नाम सटीक नहीं लग रहा मोहतरम, फिर से देखें माज़रत के साथ

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 1, 2015 at 10:33pm

आदरणीय अनुराग भाई जी बहुत बहुत आभार, धन्यवाद 

कृपया ध्यान दे...

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