11212 x 4 ( बह्र-ए-क़ामिल में पहला प्रयास)
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न वो रात है, न वो बात है, कहीं ज़िन्दगी की सदा नहीं
न उसे पता, न मुझे पता, ये सिफत किसी को अता नहीं
वो खुशी कभी तो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही कहाँ
कोई दश्त जिसमे नदी न हो, हूँ शज़र कभी जो फला नहीं
ये जमीं कहे किसे दास्तां वो जो बादलों से हुई खता
ये दरख़्त कितने डरे हुए कहीं बारिशों की दुआ नही
जो तलाश थी मेरी आरज़ू, जो पयाम था मेरी तिश्नगी
कोई फूल सा भी हंसा नहीं, कोई पंछियों सा उड़ा नहीं
वो जो तीरगी में चराग है, वो हयात है उसे थाम ले
ये अज़ाब गम का नसीब है इसे रोक ले वो बना नहीं
कोई हमनवां न तो हमसफ़र कि सदा सुने जो फिराक़ में
वो जो चल पड़ा तो अकेला था कोई कारवां भी दिखा नही
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(मौलिक व अप्रकाशित) © मिथिलेश वामनकर
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बह्र-ए-क़ामिल मुसम्मन सालिम
अर्कान – मुतफ़ाइलुन / मुतफ़ाइलुन / मुतफ़ाइलुन / मुतफ़ाइलुन
वज़्न – 11212 / 11212 / 11212 / 11212
Comment
सॉरी नीचे के कमेन्ट पर अब ध्यान गया ...निवारण तो आप पहले ही कर चुके हो ,वाह बहुत बढ़िया.पुनः बधाई इस शानदार ग़ज़ल के लिए ..छंद रचना के लिए मिथिलेश =११२१ सही है किन्तु यहाँ सही है या नहीं मुझे भी संशय है .
मिथिलेश जी इस कठिन बह्र पर बढ़िया प्रयास हुआ है किन्तु आ० गिरिराज जी से सहमत हूँ काफिया ई के साथ नहीं मेरे ख्याल से भी गलत होगा इस हिसाब से हुस्ने मतला में संशोधन करना होगा
वो खुशी कभी जो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही नही----कहाँ रही ,कर सकते हैं
हूँ शज़र कभी जो फला नहीं, कोई दश्त जिसमे नदी नही-----जिसमे नहीं नदी ...कर लीजिये ..
इसी तरह बाकी अशआर में भी बदलाव करना आपके लिए कोई बड़ी बात नहीं
बेहतरीन मतला हुआ है ..इस शानदार ग़ज़ल के लिए दाद कबूलें
आदरणीय मिथिलेश भाई ,काफिया के लिहाज़ से अब आपकी गज़ल सही लग रही है, मक्ते में आपका नाम बहर मे फिट नहीं बैठा है,
221 के लिये इस बहर मे कोई जगह नहीं दिखती , ये आपके सोचने की बात है ।
आदरणीय गिरिराज सर और शिज्जु सर आप लोगो के निर्देशानुसार पोस्ट ग़ज़ल के अनुसार भी काफिया निर्धारण का प्रयास किया है. अब दोनों में मीमांसा कर कृपया मार्गदर्शन प्रदान करने का की कृपा करे. सादर निवेदित-
न वो रात है, न वो बात है, न वो चाँद है, न वो चाँदनी
न उसे पता, न मुझे पता, कहीं खो गई मेरी जिंदगी
वो खुशी कभी जो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही नही
हूँ शज़र कभी जो फला नहीं, न ही दश्त जिसमे कोई नदी
ये जमीं कहे किसे दास्तां वो जो बादलों से हुई खता
ये दरख़्त सोच के डर गए क्यों न बारिशों की दुआ हुई
कोई फूल सा भी हंसा करे, कोई पंछियों सा उड़ा करे
ये तलाश है मेरी आरज़ू, ये पयाम है मेरी तिश्नगी
वो जो तीरगी में चराग है, वो हयात है उसे थाम ले
ये अज़ाब गम का नसीब है ये तो आदमी की है बेबसी
कोई हमनवां न तो हमसफ़र कि सदा सुने ‘मिथिलेश’ जो
मैं जो चल पड़ा तो अकेला था नहीं कारवां ही दिखा कभी
आदरणीय हरिवल्लभ शर्मा सर आपकी टिप्पणी से अभिभूत हूँ इस प्रयास को आप जैसे वरिष्ट का स्नेह और आशीर्वाद मिल गया लिखना सार्थक हुआ. आपका ह्रदय से आभार. नमन. आपने सही कहा गुनीजनों की सलाह के बाद ही ये बेतरतीबी से बिखरे अशआर मुकम्मल ग़ज़ल बन पायेंगे. मैंने एक प्रयास किया है जो पिछली टिप्पणी में पोस्ट है. सादर
आदरणीय गिरिराज सर और शिज्जु सर आप लोगो के निर्देशानुसार नया काफिया निर्धारण किया है और मक्ते के शेर में मिथिलेश में मुझे मि1 थि1 ले2 श1 ठीक लग रहा है क्योकि मिथलेश में 221 ध्वनित होता है जबकि मिथिलेश में 11212 लग रहा है. नए संशोधनों के साथ पुनः ग़ज़ल निवेदित कर रहा हूँ-
न वो रात है, न वो बात है, कहीं ज़िन्दगी की सदा नहीं
न उसे पता, न मुझे पता, ये सिफत किसी को अता नहीं
वो खुशी कभी तो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही कहाँ
कोई दश्त जिसमे नदी न हो, हूँ शज़र कभी जो फला नहीं
ये जमीं कहे किसे दास्तां वो जो बादलों से हुई खता
ये दरख़्त कितने डरे हुए कहीं बारिशों की दुआ नही
जो तलाश थी मेरी आरज़ू, जो पयाम था मेरी तिश्नगी
कोई फूल सा भी हंसा नहीं, कोई पंछियों सा उड़ा नहीं
वो जो तीरगी में चराग है, वो हयात है उसे थाम ले
ये अज़ाब गम का नसीब है इसे रोक ले वो बना नहीं
कोई हमनवां न तो हमसफ़र जो सदा सुने ‘मिथिलेश’ की
वो जो चल पड़ा तो अकेला था कोई कारवां भी दिखा नहीं
बहुत सुन्दर भाव और शब्दावली से सुगठित अशआर ...क्या कहने...गुनीजनों की सलाह के बाद जो ग़ज़ल मुकम्मल होगी उसकी कल्पना कर सकता हूँ....बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी.
कोई फूल सा भी हंसा करे, कोई पंछियों सा उड़ा करे
ये तलाश है मेरी आरज़ू, ये पयाम है मेरी तिश्नगी kya kamal ki panktiyan hai
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