संस्कृत बृज अवधी
से सुवासित,
मैं हिंदी हूँ हिन्द
की शान।
बीते सात दशक
आजादी,
अब तक क्यों ना
मिली पहचान।
दुनियाँ के सारे
देशों में,
मातृभाषा का प्रथम
स्थान।
उर्दू, आंग्ल, फ़ारसी
सबको,
आत्मसात कर दिया
है मान।
हिंदी दिवस मनाता
अब भी,
मेरा लाडला हिन्दुस्तान
बीते सात दशक......
मैं हूँ स्वामिनी अपने
घर की,
भाषा पराई करती
राज।
लज्जा आती मुझे
बोलकर,
इंगलिश के सर धरते
ताज।
मातृभाषा भले
तुम्हारी,
करते इंगलिश का
सम्मान।
बीते सात दशक....
उच्च पढाई अंग्रेजी में,
कैसे हो मेरा विस्तार?
समृद्ध सबसे व्याकरण मेरा,
बना न प्रान्तों का आधार
बैर न किसी भाषा
बोली से,
मूल बिना ना सकल
उत्थान।
बीते सात दशक.....
जाने बिना दवाई
खाते,
जो इंगलिश से है
अनजान।
विद्यालयों की खस्ता
हालत,
कान्वेंटों की जगमग
शान।
सारे भारत अलख
जगाओ,
भरतखंड की आर्य
सन्तान।
बीते सात दशक आजादी,
अब तक क्यों ना
मिली पहचान।
सीमा हरि शर्मा 2.9 2014
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभजी
महनीया सीमा जी के हिन्दी नवगीत पर मेरी टिप्पणी के निहितार्थ भी होंगे इस सम्भावना पर मैंने शायद उस समय विचार नहीं किया I जो बात मन में आयी वैसे ही कह दी I इससे सीमा जी को भी अवश्य आघात लगा होगा i इसमें कोई शक नहीं कि इस मंच से हम सब सीखते है i मै स्वयं सीखता आया हूँ i कृपया मेरे कथन को अन्यथा ले i इसमें एक भाई की बहन को सलाह मात्र है और एक ही विषय की रचनाओ में तुलना तो स्वभावतः होती ही है i मै आपसे और सीमा जी दोनों से क्षमा प्रार्थी हूँ I मेरा अनुरोध है कि -'' सार सार को गहि रहे थोथा देय उडाय i''
सादर i
आदरणीया सीमा जी , खूब सूरत सामयिक रगीत रचना के लिए आपको दिली बधाइयाँ |
आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपने आदरणीया सीमाजी को उनके इस सकारात्मक प्रयास पर सलाह दिया है.
मैं ऐसी किसी सलाह से सन्न हूँ. इसे पढ़ कर न केवल मुझे दुख हुआ है, बल्कि अत्यंत क्षोभ हो रहा है. मैं समझ नहीं पारहा हूँ कि ऐसी किसी प्रतिक्रिया के परिप्रेक्ष्य में कहा क्या जाय !
आदरणीय, इसमें शक नहीं कि ऐसी कोई सलाह किसी रचनाकार को हतोत्साहित तो करती ही है, इस मंच के उद्येश्य और इस मंच की अवधारणा के स्पष्ट प्रतिकूल है.
इस मंच के कई वरिष्ठजन कई-कई कारणों से उस तरीके से सक्रिय नहीं है. जैसी उनसे अपेक्षा हुआ करती है. अन्यथा, व्यक्तिगत तौर पर मुझे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं होती.
मैं स्वयं एक विद्यार्थी हूँ. गलतियाँ करना, सीखना तथा सतत प्रयासरत रहना ही किसी रचनाकार को रचनाप्रक्रिया के क्रम में संयत कर सकता है. आपभी अपने अनुभव तथा रचनाप्रक्रिया के संदर्भ में अपनी गहन समझ से उचित सुझाव दे सकते थे. यही उचित होता.
आदरणीया सीमाजी ने कोई प्रतियोगिता नहीं की है इसके प्रति मैं आश्वस्त हूँ. मैं इसे पूरी जानकारी के आधार पर कह रहा हूँ.
हिन्दी पखवारे या हिन्दी दिवस के अवसर हिन्दी साहित्य से सम्बद्ध हर रचनाकार का यह धर्म होता है कि वह इस विषय पर एक बार अवश्य रचनाकर्म करे. यही आदरणीया सीमाजी ने किया है. मैंने उनकी इस रचना को सादर मान दिया है. यही मैंने अपनी प्रतिक्रिया में लिखा भी है. उनके प्रति मेरी तीसरी बात का मतलब इतना ही है कि रचना अच्छी है, अलबत्ता, उसके प्रस्तुतीकरण यानि प्रस्तुत करने के ढंग को और साधा और सुधारा जा सकता है.
आदरणीय गोपाल नारायनजी, हमसभी ऐसे ही तो एक-दूसरे से सीखते हैं.
मैंने तो जो कुछ सीखा है ऐसे ही सीखा है. इसी मंच से सीखा है. मेरी यह प्रक्रिया अब भी निरंतर है.
और, इसी विषय पर क्यों. सभी रचनाकारों को सभी विषय पर रचनाकर्म करना चाहिये. कोई रचना तभी सार्थक है जब वह अन्यान्य को सुप्रेरित करती है.
विश्वास है, आप मेरे हार्दिक कष्ट को समझ कर मुझे उबारने का प्रयास करेंगे तथा भविष्य में रचनाकारों के सार्थक तथा सात्विक प्रयास को प्रोत्साहित करते हुए सम्मान देने का भाव रखेंगे.
सादर
आदरणीय Saurabh Pandey जी बहुत आभार आपने रचना को इतना समय दिया प्रस्तुतिकरण में जो गलतियाँ हों यदि कुछ मार्गदर्शन दें तो आपके अनुभवों का लाभ मिल सके सादर।
पहली बात, गीत के लिए बधाई, आदरणीया सीमाजी. एक गंभीर प्रयास हुआ है. अतः दिल से दुबारा बधाई
दूसरी बात, आपकी और आदरणीय विजयशंकर जी की टिप्पणियाँ समीचीन सार्थक हैं.
तीसरी बात, किसी रचना के प्रस्तुतीकरण का एक ढंग होता है, जो उसकी संप्रेषणीयता को बढ़ाता है. हमें उसे अवश्य समझने की कोशिश करनी चाहिए.
सादर
आदरणीय
जब एक ही विषय पर कई रचनाये एक साथ आती है तो एक अवांछित प्रतियोगिता जन्म लेती है i सौरभ जी के गीत ने सबको बौना कर दिया है i ऐसी अवांछित प्रतियोगिता से बचना चाहिए i आपको ** देता हूँ i सादर i
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